श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय ‘श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्’- इसको सुन करके भी कोई नहीं जानता। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसने सुन लिया तो अब वह जानेगा ही नहीं। इसका तात्पर्य यह है कि केवल सुन करके[1] इसको कोई भी नहीं जान सकता। सुनने के बाद जब वह स्वयं उसमें स्थित होगा, तब वह अपने-आपसे ही अपने आपको जानेगा[2]।
यहाँ कोई कहे कि शास्त्रों और गुरुजनों से सुनकर ज्ञान तो होता ही है, फिर यहाँ ‘सुन करके भी कोई नहीं जानता’- ऐसा कैसे कहा गया है? इस विषय पर थोड़ी गंभीरता से विचार करके देखें कि शास्त्रों पर श्रद्धा स्वयं शास्त्र नहीं कराते और गुरुजनों पर श्रद्धा स्वयं गुरुजन नहीं कराते; किंतु साधक स्वंय ही शास्त्र और गुरु पर श्रद्धा विश्वास करता है, स्वयं ही उनके सम्मुख होता है। अगर स्वयं के सम्मुख हुए बिना ही ज्ञान हो जाता, तो आज तक भगवान के बहुत अवतार हुए हैं, बड़े-बड़े जीवन्मुक्त महापुरुष हुए हैं, उनके सामने को अज्ञानी रहना ही नहीं चाहिए था। अर्थात सबको तत्त्वज्ञान हो जाना चाहिए था। पर ऐसा देखने में नहीं आता। श्रद्धा विश्वास पूर्वक सुनने से स्वरूप में स्थित होने में सहायता तो जरूर मिलती है, पर स्वरूप में स्थित स्वयं ही होता है। अतः उपर्युक्त पदों का तात्पर्य तत्त्वज्ञान को असंभव बताने में नहीं, प्रत्युत उसे करण निरपेक्ष बताने में है। मनुष्य किसी भी रीति से तत्त्व को जानने का प्रयत्न क्यों न करे, पर अंत में अपने आपसे ही अपने आपको जानेगा। श्रवण, मनन आदि साधन तत्त्व के ज्ञान में परंपरागत साधन माने जा सकते हैं, पर वास्तविक बोध करण-निरपेक्ष[3] ही होता है। ज्ञानेंद्रियों के द्वारा जानना नहीं होता, प्रत्युत देखना होता है, जो कि व्यवहार में उपयोगी है। स्वयं के द्वारा जो जानना होता है, वह दो तरह का होता है- एक तो शरीर संसार के साथ मेरी सदा भिन्नता है और दूसरा, परमात्मा के साथ मेरी सदा अभिन्नता है। दूसरे शब्दों में परिवर्तनशील नाशवान पदार्थों के साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी संबंध नहीं है और अपरिवर्तनशील अविनाशी परमात्मा के साथ मेरा नित्य संबंध है। ऐसा जानने के बाद फिर स्वतः अनुभव होता है। उस अनुभव का वाणी से वर्णन नहीं हो सकता। वहाँ तो बुद्धि भी चुप हो जाती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सुनने मात्र से
- ↑ अपने आपसे ही अपने को जानने की बात गीता में कई जगह आयी है, जैसे-
- आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते। (2।55)
- यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः। आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्य न विद्यते ।। (3।17)
- यत्र चैवात्मनात्मानं पश्यन्नात्मनि तुष्यति ।। (6।20)
- यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्स्यात्मन्यवस्थितम्। (15।1)
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