श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
द्वितीय अध्याय सम्बन्ध- अब भगवान शरीरी की अलौलिकता का वर्णन करते हैं। आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः । व्याख्या- ‘आश्यर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्’- इस देही को कोई आश्चर्य की तरह जानता है। तात्पर्य यह है कि जैसे दूसरी चीजें देखने, सुनने, पढ़ने और जानने में आती हैं, वैसे इस देही का जानना नहीं होता। कारण कि दूसरी वस्तुएँ इदंता से[1] जानते हैं अर्थात वे जानने का विषय होती है, पर यह देही इंद्रिय मन बुद्धि का विषय नहीं है। इसको तो स्वयं से, अपने आपसे ही जाना जाता है। अपने आपसे जो जानना होता है, वह जानना लौकिक ज्ञान की तरह नहीं होता, प्रत्युत बहुत विलक्षण होता है। ‘पश्यति’ पद के दो अर्थ होते हैं- नेत्रों से देखना और स्वयं के द्वारा स्वयं को जानना। यहाँ ‘पश्यति’ पद स्वयं के द्वारा स्वयं को जानने के विषय में आया है[2] जहाँ नेत्र आदि कारणों से देखना जानना होता है, वहाँ द्रष्टा[3], दृश्य[4] और दर्शन[5] यह त्रिपुटी होती है। इस त्रिपुटी से ही सांसारिक देखना- जानना होता है। परंतु स्वयं के ज्ञान में यह त्रिपुटी नहीं होती अर्थात स्वयं का ज्ञान करण-सापेक्ष नहीं है। स्वयं का ज्ञान तो स्वयं के द्वारा ही होता है अर्थात वह ज्ञान करण-निरपेक्ष है। जैसे. ‘मैं हूँ’- ऐसा जो अपने होनेपन का ज्ञान है, इसमें किसी प्रमाण की या किसी कारण की आवश्यकता नहीं है। इस अपने होने पन को ‘इदंता’ से अर्थात दृश्य रूप से नहीं देख सकते। इसका ज्ञान अपने-आपको ही होता है। यह ज्ञान इंद्रियजन्य या बुद्धिजन्य नहीं है। इसलिए स्वयं को[6] जानना आश्चर्य की तरह होता है। जैसे अंधेरे कमरे में हम किसी चीज को लाने जाते हैं, तो हमारे साथ प्रकाश भी चाहिए और नेत्र भी चाहिए अर्थात उस अंधेरे कमरे में प्रकाश की सहायता से हम उस चीज को नेत्रों से देखेंगे, तब उसको लायेंगे। परंतु कहीं दीपक जल रहा है और हम उस दीपक को देखने जाएंगे, तो उस दीपक को देखने के लिए हमें दूसरे दीपक की आवश्यकता नहीं पड़ेगी; क्योंकि दीपक स्वयं प्रकाश है। वह अपने-आपको स्वयं ही प्रकाशित करता है। ऐसे ही अपने स्वरूप को देखने के लिए किसी दूसरे प्रकाश की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि यह देही[7] स्वयं प्रकाश है। अतः यह अपने-आपसे ही अपने-आपको जानता है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण- ये तीन शरीर हैं। अन्न, जल से बना हुआ ‘स्थूल शरीर’ है। यह स्थूल शरीर इंद्रियों का विषय है। इस स्थूल शरीर के भीतर पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेंद्रियाँ, पाँच प्राण, मन और बुद्धि- इन सत्रह तत्त्वों से बना हुआ ‘सूक्ष्म शरीर’ है। यह सूक्ष्म शरीर इंद्रियों का विषय नहीं है, जिसमें प्रकृति स्वभाव रहता है, वह ‘कारणशरीर’ है। इन तीनों शरीरों पर विचार किया जाए तो यह स्थूल शरीर मेरा स्वरूप नहीं है; क्योंकि वह प्रतिक्षण बदलता है और जानने में आता है। सूक्ष्मशरीर भी बदलता है और जानने में आता है; अतः यह भी मेरा स्वरूप नहीं है। कारण शरीर प्रकृति स्वरूप है, पर देही[8] प्रकृति से भी अतीत है, अतः कारण शरीर भी मेरा स्वरूप नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ‘यह’ करके
- ↑ गीता 2।55; 6।20 आदि
- ↑ देखने वाला
- ↑ दीखने वाली वस्तु
- ↑ देखने की शक्ति
- ↑ अपने-आपको
- ↑ स्वरूप
- ↑ स्वरूप
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज