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प्रथम अध्याय
‘आचार्याः’- इन कुटुम्बियों में जिन द्रोणाचार्य आदि से हमारा विद्या का, हित का संबंध है, ऐसे पूज्य आचार्यों की मेरे को सेवा करनी चाहिए कि उनके साथ लड़ाई करनी चाहिए? आचार्य के चरणों में तो अपने-आपको, अपने प्राणों को भी समर्पित कर देना चाहिए। यही हमारे लिए उचित है।
‘पितरः’- शरीर के संबंध को लेकर जो पिता लोग हैं, उनका ही तो रूप यह हमारा शरीर है। शरीर से उनके स्वरूप होकर हम क्रोध या लोभ में आकर अपने उन पिताओं को कैसे मारें?
‘पुत्राः’- हमारे और हमारे भाइयों को जो पुत्र हैं, वे तो सर्वथा पालन करने योग्य हैं। वे हमारे विपरीत कोई क्रिया भी कर बैंठें, तो भी उनका पालन करना ही हमारा धर्म है।
‘पितामहाः’- ऐसे ही जो पितामह हैं, वे जब हमारे पिताजी के भी पूज्य हैं, तब हमारे लिए तो परमपूज्य हैं ही। वे हमारी ताड़ना कर सकते हैं, हमें मार भी सकते हैं। पर हमारी तो ऐसी ही चेष्टा होनी चाहिए, जिससे उनको किसी तरह का दुःख न हो, कष्ट न हो, प्रत्युत उनको सुख हो, आराम हो, उनकी सेवा हो।
‘मातुलाः’- हमारे जो मामा लोग हैं, वे हमारा पालन पोषण करने वाली माताओं के ही भाई हैं। अतः वे माताओं के समान ही पूज्य होने चाहिए।
‘श्वशुराः’- ये जो हमारे ससुर हैं, ये मेरी और मेरे भाइयों की पत्नियों के पूज्य पिताजी हैं। अतः ये हमारे लिए भी पिता के ही तुल्य है। इनको मैं कैसे मारना चाहूँ?
‘पौत्राः’- हमारे पुत्रों के जो पुत्र हैं, वे तो पुत्रों से भी अधिक पालन-पोषण करने योग्य हैं।
‘श्यालाः’- हमारे जो साले हैं, वे भी हम लोगों की पत्नियों के प्यारे भैया हैं। उनको भी कैसे मारा जाय !
‘संबंधिन:’- ये जितने संबंधी दीख रहे हैं और इनके अतिरिक्त जितने भी संबंधी हैं, उनका पालन-पोषण, सेवा करनी चाहिए कि उनको मारना चाहिए? इनको मारने से अगर हमें त्रिलोकी का राज्य भी मिल जाय, तो भी क्या इनको मारना उचित है? इनको मारना तो सर्वथा अनुचित है।
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