श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
प्रथम अध्याय संबंध- जिनके लिए हम राज्य, भोग और सुख चाहते हैं, वे लोग कौन हैं- इसका वर्णन अर्जुन आगे के दो श्लोकों में करते हैं। आचार्याः[1]पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहा:। व्याख्या- [ भगवान आगे सोलहवें अध्याय के इक्कीसवें श्लोक में कहेंगे कि काम, क्रोध और लोभ- ये तीनों ही नरक के द्वार हैं। वास्तव में एक काम के ही ये तीन रूप हैं। ये तीनों सांसारिक वस्तुओं, व्यक्तियों आदि को महत्त्व देने से पैदा होते हैं। काम अर्थात कामना की दो तरह की क्रियाएँ होती हैं- इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट की निवृत्ति। इनमें से इष्ट की प्राप्ति भी दो तरह की होती है- संग्रह करना और सुख भोगना। संग्रह की इच्छा का नाम ‘लोभ’ है और सुख भोग की इच्छा का नाम ‘काम’ है। अनिष्ट की निवृत्ति में बाधा पड़ने पर ‘क्रोध’ आता है अर्थात भोगों की, संग्रह की प्राप्ति में बाधा देने वालों पर अथवा हमारा अनिष्ट करने वालों पर, हमारे शरीर का नाश करने वालों पर क्रोध आता है, जिससे अनिष्ट करने वालों का नाश करने की क्रिया होती है। इससे सिद्ध हुआ कि युद्ध में मनुष्य की दो तरह से ही प्रवृत्ति होती है- अनिष्ट की निवृत्ति के लिए अर्थात अपने ‘क्रोध’ को सफल बनाने के लिये और इष्ट की प्राप्ति के लिये अर्थात ‘लोभ’ की पूर्ति के लिये। परंतु अर्जुन यहाँ इन दोनों ही बातों का निषेध कर रहे हैं। ] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ छब्बीसवें श्लोक में ‘पितृनथ पितामहान्.....’ कहकर सबसे पहले पिताओं और पितामहों का नाम लिया गया है, और यहाँ ‘आचार्यः पितरः....’ कहकर सबसे पहले आचार्यो का नाम लिया गया है। इसका तात्पर्य है कि वहाँ तो कौटुम्बिक स्नेह की मुख्यता है, इसलिए यहाँ पिता का नाम सबसे पहले लिया है; और यहाँ न मारने का विषय चल रहा है, इसलिए यहाँ सबसे पहले आदरणीय पूज्य आचार्यों- गुरुजनों का नाम लिया है, जो कि जीव के परम हितैषी होते हैं।
- ↑ घ्रतोऽपि
- ↑ अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः
- ↑ ‘मधु’ नामक दैत्य को मारने के कारण भगवान का नाम ‘मधुसूदन’ पड़ा था।
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