श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘अवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्’- स्वतः सिद्ध परमपद की प्राप्ति अपने कर्मों से, अपने पुरुषार्थ से अथवा अपने साधन से नहीं होती। यह तो केवल भगवत्कृपा से ही होती है। शाश्वत अव्ययपद सर्वोत्कृष्ट है। उसी परमपद को भक्तिमार्ग में परमधाम, सत्यलोक, बैकुंठलोक, गोलोक, साकेतलोक आदि कहते हैं और ज्ञानमार्ग में विदेह-कैवल्य, मुक्ति, स्वरूपस्थिति आदि कहते हैं। वह परमपद तत्त्व से एक होते हुए भी मार्गों और उपासनाओं का भेद होने से उपासकों की दृष्टि से भिन्न-भिन्न कहा जाता है।[1] भगवान का चिन्मय लोक एक देश विशेष में होते हुए भी सब जगह व्यापक रूप से परिपूर्ण है। जहाँ[2] है। जब भक्त की अनन्य निष्ठा सिद्ध हो जाती है, तब परिच्छिन्नता का अत्यंत अभाव हो जाता है और वही लोक उसके सामने प्रकट हो जाता है अर्थात उसे यहाँ जीते जी ही उस लोक की दिव्य लीलाओं का अनुभव होने लगता है। परंतु जिस भक्त की ऐसी धारणा रहती है कि वह दिव्यलोक एक देश-विशेष में ही है, तो उसे उस लोक की प्राप्ति शरीर छोड़ने पर ही होती है। उसे लेने के लिए भगवान के पार्षद आते हैं और कहीं-कहीं स्वयं भगवान भी आते हैं। संबंध- पूर्वश्लोक में अपना सामान्य विधान (नियम) बताकर अब भगवान आगे के श्लोक में अर्जुन के लिए विशेष रूप से आज्ञा देते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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