श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय: । अर्थ- मेरा आश्रय लेने वाला भक्त सदा सब कर्म करता हुआ भी मेरी कृपा से शाश्वत अविनाशी पद को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- ‘मद्व्यपाश्रयः’- कर्मों का, कर्मों के फल का, कर्मों को पूरा होने अथवा न होने का, किसी घटना, परिस्थिति, वस्तु, व्यक्ति आदि का आश्रय न हो। केवल मेरा ही आश्रय (सहारा) हो। इस तरह जो सर्वथा मेरे ही परायण हो जाता है, अपना स्वतंत्र कुछ नहीं समझता, किसी भी वस्तु की अपनी नहीं मानता, सर्वथा मेरे आश्रित रहता है, ऐसे भक्त को अपने उद्धार के लिए कुछ करना नहीं पड़ता। उसका उद्धार मैं कर देता हूँ[1]; उसको अपने जीवन-निर्वाह या साधन-संबंधी किसी बात की कमी नहीं रहती; सबकी मैं पूर्ति कर देता हूँ[2]- यह मेरा सदा का एक विधान है, नियम है, जो सर्वथा शरण हो जाने वाले हरेक प्राणी को प्राप्त हो सकता है।[3] ‘सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणः’- यहाँ ‘कर्माणि’ पद के साथ ‘सर्व’ और ‘कुर्वाणः’ के साथ ‘सदा’ पद देने का तात्पर्य है कि जिस ध्यानपरायण सांख्ययोगी ने शरीर, वाणी और मन का संयमन कर लिया है अर्थात जिसने शरीर आदि की क्रियाओं को संकुचित कर लिया है और एकांत में रहकर सदा ध्यानयोग में लगा रहता है, उसको जिस पद की प्राप्ति होती है, उस पद को लौकिक, पारलौकिक, सामाजिक, शारीरिक आदि संपूर्ण कर्तव्य-कर्मों को हमेशा करते हुए भी मेरा आश्रय लेने वाला भक्त मेरी कृपा से प्राप्त कर लेता है। हरेक व्यक्ति को यह बात तो समझ में आ जाती है कि जो एकान्त में रहता है और साधन भजन करता है, उसका कल्याण हो जाता है; परंतु यह बात समझ में नहीं आती कि जो सदा मशीन की तरह संसार का सब काम करता है, उसका कल्याण कैसे होगा? उसका कल्याण हो जाए, ऐसी कोई यक्ति नहीं दीखती; क्योंकि ऐसे तो सब लोग कर्म करते ही रहते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज