श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम् । अर्थ- जिस परमेश्वर से सम्पूर्ण प्राणियों की उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत व्याप्त है, उस परमेश्वर की अपने स्वाभाविक कर्मों द्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धि को प्राप्त हो जाता है। व्याख्या- जिस परमात्मा से संसार पैदा हुआ है, जिससे संपूर्ण संसार का संचालन होता है, जो सबका उत्पादक, आधार और प्रकाशक है और जो सबमें परिपूर्ण है अर्थात जो परमात्मा अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, जो अनन्त ब्रह्माण्डों की उत्पत्ति से पहले भी था, जो अनन्त ब्रह्माण्डों के लीन होने पर भी रहेगा और अनन्त ब्रह्माण्डों के रहते हुए भी जो रहता है तथा जो अनन्त ब्रह्माण्डों में व्याप्त है, उसी परमात्मा का अपने-अपने स्वभावज (वर्णोचित स्वाभाविक) कर्मों के द्वारा पूजन करना चाहिए। ‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य’- मनुस्मृति में ब्राह्मणों के लिए छः कर्म बताए गये हैं- स्वयं पढ़ना और दूसरों को पढ़ाना, स्वयं यज्ञ करना और दूसरों से यज्ञ कराना तथा स्वयं दान लेना और दूसरों को दान देना[1] (इनमें पढ़ाना, यज्ञ कराना और दान लेना- ये तीन कर्म जीविका के हैं और पढ़ाना, यज्ञ करना और दान देना- ये तीन कर्तव्यकर्म हैं)। उपर्युक्त शास्त्रनियत छः कर्म और शम-दम आदि नौ स्वभावज कर्म तथा इनके अतिरिक्त खाना-पीना, उठना-बैठना आदि जितने भी कर्म हैं, उन कर्मों के द्वारा ब्राह्मण चारों वर्णों में व्याप्त परमात्मा का पूजन करें। तात्पर्य है कि परमात्मा की आज्ञा से, उनकी प्रसन्नता के लिए ही भगवद्बुद्धि से निष्काम भावपूर्वक सबकी सेवा करें। ऐसे ही क्षत्रियों के लिए पाँच कर्म बताए गए हैं- प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना और विषयों में आसक्त न होना।[2] इन पाँच कर्मों तथा शौर्य, तेज आदि सात स्वभावज कर्मों के द्वारा और खाना-पीना आदि सभी कर्मों के द्वारा क्षत्रिय सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें। वैश्य यज्ञ करना, अध्ययन करना, दान देना और ब्याज लेना तथा कृषि, गौरक्ष्य और वाणिज्य[3]- इन शास्त्रनियत और स्वभावज कर्मों के द्वारा और शूद्र शास्त्रविहित तथा स्वभावज कर्म सेवा[4] के द्वारा सर्वत्र व्यापक परमात्मा का पूजन करें अर्थात अपने शास्त्रविहित, स्वभावज और खाना-पीना, सोना-जागना आदि सभी कर्मों के द्वारा भगवान की आज्ञा से, भगवान की प्रसन्नता के लिए भगवद्बुद्धि से निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा करें।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ।। (मनु. 1।88)
- ↑ प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। विषयेष्ठवप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः ।। (मनु. 1।81)
- ↑ पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च। वणिक्पथंकुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च ।। (मनु. 1।90)
- ↑ एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्। एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया ।। (मनु. 1।91)
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