श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मालिक का समय-समय पर काम-धंधा करने से नौकर को पैसे मिल जाते हैं और सेव्य की सेवा करने से सेवक को अंतःकरण शुद्धिपूर्वक भगवत्प्राप्ति हो जाती है; परंतु पूजाभाव के बढ़ने से तो पूजक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य है कि चरणचाँपी तो नौकर भी करता है, पर उसको सेवा का आनंद नहीं मिलता; क्योंकि उसकी दृष्टि पैसों पर रहती है। परंतु जो सेवा बुद्धि से चरणचांपी करता है, उसको सेवा में विशेष आनंद मिलता है; क्योंकि उसकी दृष्टि सेव्य के सुख पर रहती है। पूजा में तो चरण छूने मात्र से शरीर रोमांचित हो जाता है और अंतःकरण में एक पारमार्थिक आनंद होता है। उसकी दृष्टि पूज्य की महत्ता पर और अपनी लघुता पर रहती है। ऐसे देखे जाए तो नौकर के काम-धंधे से मालिक को आराम मिलता है, सेवा में सेव्य को विशेष आराम तथा सुख मिलता है और पूजा में पूजक के भाव से पूज्य को प्रसन्नता होती है। पूजा में शरीर के सुख आराम की प्रधानता नहीं होती। अपने स्वभावज कर्मों के द्वारा पूजा करने से पूजक का भाव बढ़ जाता है तो उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर से होने वाली (चेष्टा, चिन्तन, समाधि आदि) सभी छोटी-बड़ी क्रियाएँ सब प्राणियों में व्यापक परमात्मा की पूजन सामग्री बन जाती है। उसकी दैनिक-चर्या अर्थात खाना-पीना आदि सब क्रियाएँ भी पूजन-सामग्री बन जाती हैं। जैसे ज्ञानयोगी का ‘मैं कुछ भी नहीं करता हूँ’ यह भाव हरदम बना रहता है, ऐसे ही अनेक प्रकार की क्रियाएँ करने पर भी भक्त के भीतर एक भगवद्भाव हरदम बना रहता है। उस भाव की गाढ़ता में उसका अहंभाव भी छूट जाता है।
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