श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
मनुष्यमात्र कर्मयोनि होने पर भी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य में विवेक-विचार का विशेष तारतम्य रहता है और शुद्धि भी रहती है; परंतु शूद्र में मोह की प्रधानता रहने से उसमें विवेक बहुत दब जाता है। इस दृष्टि से शूद्र के सेवा कर्म में विवेक की प्रधानता न होकर आज्ञापालन की प्रधानता रहती है- ‘अग्या सम न सुसाहिब सेवा’।[3] इसलिए चारों वर्णों की आज्ञा के अनुसार सेवा करना, सुख-सुविधा जुटा देना शूद्र के लिए स्वाभाविक होता है। शूद्रों के कर्म परिचर्यात्मक अर्थात सेवास्वरूप होते हैं। उनके शारीरिक, सामाजिक, नागरिक, ग्रामणिक आदि सब के सब कर्म ठीक तरह से उत्पन्न होते हैं, जिनसे चारों ही वर्णों के जीवन-निर्वाह के लिए सुख-सुविधा, अनुकूलता और आवश्यकता की पूर्ति होती है। चेतन जीवात्मा और जड प्रकृति- दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है। चेतन स्वाभाविक ही निर्विकार अर्थात परिवर्तनरहित है और प्रकृति स्वाभाविक ही विकारी अर्थात परिवर्तनशील है। अतः इन दोनों का स्वभाव भिन्न-भिन्न होने से इनका संबंध स्वाभाविक नहीं है; किंतु चेतन ने प्रकृति के साथ अपना संबंध मानकर उस संबंध की सद्भावना कर ली है अर्थात ‘संबंध है’ ऐसा मान लिया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 14:18
- ↑ गीता 14:15
- ↑ मानस 2।301।2
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