श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
गायों की रक्षा के लिए भाई-बहनों को चाहिए कि वे गायों का पालन करें, उनको अपने घरों में रखें। गाय का ही दूध-घी खाएं, भैंस आदि का नहीं। घरों में गोबर-गैस का प्रयोग किया जाए। गायों की रक्षा के उद्देश्य से नहीं। जितनी गोचर-भूमियाँ हैं, उनकी रक्षा की जाए तथा सरकार से और गोचर-भूमियाँ छुड़ाई जाएँ। सरकार की गोहत्या-निति का विरोध किया जाए और सरकार से अनुरोध किया जाए कि वह देश की रक्षा के लिए पूरे देश में तत्काल पूर्णरूप से गोहत्या बंद करे। ‘परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्’- चारों वर्णों की सेवा करना, सेवा की सामग्री तैयार करना और चारों वर्णों के कार्यों में कोई बाधा, अड़चन न आए, सब को सुख-आराम हो- इस भाव से अपनी बुद्धि, योग्यता, बल के द्वारा सबकी सेवा करना शूद्र का स्वाभाविक कर्म है। यहाँ एक शंका पैदा होती है कि भगवान ने चारों वर्णों की उत्पत्ति, सत्त्व, रज और तम- इन तीन गुणों को कारण बताया। उसमें तमोगुण की प्रधानता से शूद्र की उत्पत्ति बतायी और गीता में जहाँ तमोगुण का वर्णन हुआ है, वहाँ पर उसके अज्ञान, प्रमाद, आलस्य, निद्रा, अप्रकाश, अप्रवृत्ति और मोह- ये सात अवगुण बताये हैं।[1] अतः ऐसे तमोगुण की प्रधानता वाले शूद्र से सेवा कैसे होगी? क्योंकि वह आलस्य, प्रमाद आदि में पड़ा रहेगा तो सेवा कैसे कर सकेगा? सेवा बहुत ऊँचे दर्जे की चीज है। ऐसे ऊँचे कर्म का भगवान ने शूद्र के लिए कैसे विधान किया?
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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