श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘ब्रह्मकर्म स्वभावजम्’- यह शम, दम आदि ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म (गुण) हैं अर्थात इन कर्मों (गुणों) को धारण करने में ब्राह्मण को परिश्रम नहीं पड़ता। जिन ब्राह्मणों में सत्त्वगुण की प्रधानता है, जिनकी वंश-परंपरा परम शुद्ध है और जिनके पूर्वजन्मकृत कर्म भी शुद्ध हैं, ऐस ब्राह्मणों के लिए ही शम, दम आदि गुण स्वाभाविक होते हैं और उनमें किसी गुण के न होने पर अथवा किसी गुण में कमी होने पर भी उसकी पूर्ति करना उन ब्राह्मणों के लिए सहज होता है। चारों वर्णों की रचना गुणों के तारतम्य से की गयी है, इसलिए गुणों के अनुसार उस-उस वर्ण में वे-वे कर्म स्वाभाविक प्रकट हो जाते हैं और दूसरे कर्म गौण हो जाते हैं। जैसे ब्राह्मण में सत्त्वगुण की प्रधानता होने से उसमें शम, दम आदि कर्म (गुण) स्वाभाविक आते हैं तथा जीविका के कर्म गौण हो जाते हैं और दूसरे वर्णों में रजोगुण तथा तमोगुण की प्रधानता होने से उन वर्णों के जीविका के कर्म भी स्वाभाविक कर्मों में सम्मिलित हो जाते हैं। इसी दृष्टि से गीता में ब्राह्मण के स्वभावज कर्मों में जीविका के कर्म न कह करके शम, दम आदि कर्म (गुण) ही कहे गए हैं। संबंध- अब क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म बताते हैं।
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