श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् । अर्थ- शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता और युद्ध में न भागना, दान देना और स्वामिभाव– ये सब के सब ही क्षत्रिय के स्वाभाविक कर्म हैं। व्याख्या- ‘शौर्यम्’- मन में अपने धर्म का पालन करने की तत्परता हो, धर्ममय युद्ध[1] प्राप्त होने पर युद्ध में चोट लगने, अंग कट जाने, मर जाने आदि का किञ्चिन्मात्र भी भय न हो, घाव होने पर भी मन में प्रसन्नता और उत्साह रहे तथा सिर कटने पर भी पहले जैसे ही अस्त्र-शस्त्र चलाता रहे, इसका नाम ‘शौर्य’ है। ‘तेजः’- जिस प्रभाव या शक्ति के सामने पापी-दुराचारी मनुष्य भी पाप, दुराचार करने से हिचकते हैं, जिसके सामने लोगों की मर्यादा विरुद्ध चलने की हिम्मत नहीं होती अर्थात लोग स्वाभाविक ही मर्यादा में चलते हैं, उसका नाम ‘तेज’ है। ‘धृतिः’- विपरीत से विपरीत अवस्था में भी अपने धर्म से विचलित न होने और शत्रुओं के द्वारा धर्म तथा नीति से विरुद्ध कार्य न करके धैर्यपूर्वक उसी मर्यादा में चलने का नाम ‘धृति’ है। ‘दाक्ष्यम्’- प्रजा पर शासन करने की, प्रजा को यथा-योग्य व्यवस्थित रखने की और उसका संचालन करने की विशेष योग्यता, चतुराई का नाम ‘दाक्ष्य’ है। ‘युद्धे चाप्यपलायनम्’- युद्ध में कभी पीठ न दिखाना, मन में कभी हार स्वीकार न करना, युद्ध छोड़कर कभी न भागना- यह युद्ध में ‘अपलायन’ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अपना युद्ध करने का विचार भी नहीं है, कोई स्वार्थ भी नहीं है, पर परिस्थितिवशात केवल कर्तव्यरूप से प्राप्त हुआ है, वह ‘धर्मय युद्ध’ है।
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