श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
शमो दमस्तप: शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च । अर्थ- अन्तकरण का निग्रह करना; इन्द्रियाँ का दमन करना; धर्मपालन के लिये कष्ट सहना; बाहर-भीतर से शुद्ध रहना, दूसरों के अपराधों को क्षमा करना; मन, इन्द्रिय और शरीर को सरल रखना; वेद, शास्त्र, ईश्वर और परलोक आदि में श्रद्धा रखना; वेद शास्त्रों का अध्ययन-अध्यापन करना और परमात्मा के तत्त्व का अनुभव करना ये सब के सब ही ब्राह्मण के स्वाभाविक कर्म हैं। व्याख्या- ‘शमः’- मन को जहाँ लगाना चाहे, वहाँ लग जाए और जहाँ से हटाना चाहें, वहाँ से हट जाए- इस प्रकार मन के निग्रह को ‘शम’ कहते हैं। ‘दमः’- जिस इंद्रियों से जब जो काम करना चाहें, तब वह काम कर लें और जिस इंद्रिय को जब जहाँ से हटाना चाहें, तब वहाँ से हटा लें- इस प्रकार इंद्रियों को वश में करना ‘दम’ है। ‘तपः’- गीता में शरीर, वाणी और मन के तप का वर्णन आता है[1], उस तप को लेते हुए भी यहाँ वास्तव में ‘तप’ का अर्थ है- अपने धर्म का पालन करते हुए जो कष्ट हो अथवा कष्ट आ जाए, उसको प्रसन्नतापूर्वक सहन अर्थात कष्ट के आने पर चित्त में प्रसन्नता का होना। ‘शौचम्’- अपने मन, बुद्धि, इंद्रियाँ, शरीर आदि को पवित्र रखना तथा अपने खान-पान, व्यवहार आदि की पवित्रता रखना- इस प्रकार शौचाचार-सदाचार का ठीक पालन करने का नाम ‘शौच’ है। ‘क्षान्तिः’- कोई कितना ही अपमान करे, निन्दा करे, दुःख दे और अपने में उसको दंड देने की योग्यता, बल, अधिकार भी हो, फिर भी उसको दंड न देकर उसके क्षमा माँगे बिना ही उसको प्रसन्नतापूर्वक क्षमा कर देने का नाम ‘क्षान्ति’ है। ‘आर्जवम्’- शरीर, वाणी आदि के व्यवहार में सरलता हो और मन में छल, कपट, छिपाव आदि दुर्भाव न हों अर्थात सीधा-सादापन हो, उसका नाम ‘आर्जव’ है। ‘ज्ञानम्’- वेद, शास्त्र, पुराण, इतिहास आदि का अच्छी तरह अध्ययन होना और उनके भावों का ठीक तरह से बोध होना तथा कर्तव्य-अकर्तव्य का बोध होना ‘ज्ञान’ है। ‘विज्ञानम्’- यज्ञ में स्त्रुक, स्त्रुवा आदि वस्तुओं का किस अवसर पर किस विधि से प्रयोग करना चाहिए- इसका अर्थात यज्ञविधि का तथा अनुष्ठान आदि की विधि का अनुभव कर लेने (अच्छी तरह करके देख लेने) का नाम ‘विज्ञान’ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 17।14-16
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