श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुन: ।
व्याख्या- इस अध्याय के आरंभ में अर्जुन ने संन्यास और त्याग का तत्त्व जानना चाहा तो भगवान ने पहले त्याग- कर्मयोग का वर्णन किया। उस प्रकरण का उपसंहार करते हुए भगवान ने कहा कि जो त्यागी नहीं है, उनको मिलता है और जो संन्यासी हैं, उनको कभी नहीं मिलता। ऐसा कहकर तेरहवें श्लोक से संन्यास-सांख्ययोग का प्रकरण आरंभ करके पहले कर्मों के होने में अधिष्ठानादि पाँच हेतु बताए। सोलहवें-सत्रहवें श्लोक में कर्तृत्व मानने वालों की निंदा और कर्तृत्व का त्याग करने वालों की प्रशंसा की। अठारहवें श्लोक में कर्म-प्रेरणा और कर्म-संग्रह का वर्णन किया है। परंतु जो वास्तविक तत्त्व है, वह न कर्म-प्रेरक है और न कर्म-संग्राहक। कर्म-प्रेरणा और कर्मसंग्रह तो प्रकृति के गुणों के साथ संबंध रखने से ही होते हैं। फिर गुणों के अनुसार ज्ञान, कर्म, कर्ता, बुद्धि, धृति और सुख के तीन-तीन भेदों का वर्णन किया। सुख का वर्णन करते हुए यह बताया कि प्रकृति के साथ यत्किञ्चित संबंध रखते हुए ऊँचा से ऊँचा जो सुख होता है, वह सात्त्विक होता है। परंतु जो स्वरूप का वास्तविक सुख है, वह गुणातीत है, विलक्षण है, अलौकिक है।[1] सात्त्विक सुख को ‘आत्मबुद्धिप्रसादजम्’ कहकर भगवान ने उसको जन्य (उत्पन्न होने वाला) बताया। जन्य वस्तु नित्य नहीं होती। इसलिए उसको जन्य बताने का तात्पर्य है कि उस जन्य सुख से भी ऊपर उठना है अर्थात प्रकृति और प्रकृति के तीनों गुणों से रहित होकर उस परमात्मतत्त्व को प्राप्त करना है, जो कि सबका अपना स्वाभाविक स्वरूप है। इसलिए कहते हैं- ‘न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु वा पुनः’- यहाँ ‘पृथिव्याम्’ पद से मृत्युलोक और पृथ्वी के नीचे के अतल, वितल आदि सभी लोकों का, ‘दिवि’ पद से स्वर्ग आदि लोकों का, ‘देवेषु’ पद को प्राणिमात्र के उपलक्षण के रूप में उन-उन स्थानों में रहने वाले मनुष्य, देवता, असुर, राक्षस, नाग, पशु, पक्षी, कीट, पतंग, वृक्ष आदि सभी चर-अचर प्राणियों का, और ‘वा पुनः’ पदों से अनन्त ब्रह्माण्डों का संकेत किया गया है। तात्पर्य यह हुआ कि त्रिलोकी और अनन्त ब्रह्माण्ड तथा उनमें रहने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो प्रकृति से उत्पन्न इन तीनों गुणों से रहित हो अर्थात सब के सब त्रिगुणात्मक है- ‘सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभिः स्यात्त्रिभिर्गुणैः’।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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