श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
विवेकपूर्वक असत से संबंध-विच्छेद हो जाने पर, रागवाली वस्तुओं के मन से निकल जाने पर और बुद्धि के तमोगुण में लीन हो जाने पर जो सुख होता है, वह उसी सुख का आभास है। तात्पर्य यह हुआ कि संसार से विवेक पूर्वक विमुख होने पर सात्त्विक सुख, भीतर से वस्तुओं के निकलने पर राजस सुख और मूढ़ता से निद्रा-आलस्य में संसार को भूलने पर तामस सुख होता है; परंतु वास्तविक सुख तो प्रकृतिजन्य पदार्थों से सर्वथा संबंध-विच्छेद से ही होता है। इन सुखों में जो प्रियता, आकर्षण और (सुख का) भोग है, वही पारमार्थिक उन्नति में बाधा देने वाला और पतन करने वाला है। इसलिए पारमार्थिक उन्नति चाहने वाले साधकों को इन तीनों सुखों से संबंध-विच्छेद करना अत्यंत आवश्यक है। संबंध- बीसवें उन्तालीसवें श्लोक तक भगवान ने गुणों की मुख्यता को लेकर ज्ञान, कर्म आदि के तीन-तीन भेद बताये। अब इनके सिवाय गुणों को लेकर सृष्टि की संपूर्ण वस्तुओं के भी तीन-तीन भेद होते हैं- इसका लक्ष्य कराते हुए भगवान आगे के श्लोक में प्रकार का उपसंहार करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ निद्रा को तामस सुख कहने का अभिप्राय यह है कि इसमें बुद्धि मोहित हो जाती है अर्थात उसमें बेहोशी आ जाती है। उस बेहोशी से संसार की सर्वथा विस्मृति हो जाती है और जाग्रत-अवस्था सर्वथा दब जाती है, इसलिए इसको तामस सुख कहा गया है। अगर इंद्रियों सहित बुद्धि मोहित न हो तो यही अवस्था ‘समाधि’ हो जाती है। समाधि से भी विश्राम मिलता है। इस विश्राम में निद्रा से मिलने वाली जो ताजगी है, वह मिल जाती है; परंतु इस ताजगी का सुख लेने से गुणातीत नहीं होता। गुणातीत तो समाधि के सुख से असंग होने से ही होता है। प्रकृति क्रियाशील, परिवर्तनशील है और परमात्मतत्त्व अपरिवर्तनशील, निर्विकार, शांत, निश्चल है। निद्रावस्था में उस निश्चल तत्त्व में स्थिति हो जाती है; परंतु अंतःकरण में भोगों का महत्त्व रहने से निद्रा के बाद मनुष्य की फिर भोग और संग्रह में ही रुचि हो जाती है और वह उसी में लग जाता है। इस प्रकार राग के कारण मनुष्य उस निश्चल तत्त्व से लाभ नहीं ले सकता और निद्रा से केवल थकावट दूर कर लेता है। अगर वह भोग और ऐश्वर्य की आसक्ति का सर्वथा त्याग कर दे तो उसकी निद्रा में और निद्रा के बाद भी स्वरूप में स्वतः स्वाभाविक अटल स्थिति रहेगी।
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