|
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
उस सच्चिदानन्द परमात्मा का ही अंश होने से यह प्राणी भी सच्चिदानन्द स्वरूप है। परंतु जब प्राणी असत् वस्तु की इच्छा करता है कि अमुक वस्तु मुझे मिले, तब उस इच्छा से वह स्वतः स्वाभाविक आनंद- सुख ढक जाता है। जब असत वस्तु की इच्छा मिट जाती है, तब उस इच्छा के मिटते ही वह स्वतः स्वाभाविक सुख प्रकट हो जाता है। नित्य-निरंतर रहने वाला जो सुखरूप ‘तत्त्व’ है, उसमें जब सात्त्वकी बुद्धि तल्लीन हो जाती है, तब बुद्धि में स्वच्छता, निर्मलता आ जाती है। उस स्वच्छ और निर्मल बुद्धि से अनुभव में आने वाला यह स्वाभाविक सुख ही सात्त्विक कहलाता है। बुद्धि से भी जब संबंध छूट जाता है, तब वास्तविक सुख रह जाता है। सात्त्विकी बुद्धि के संबंध से ही उस सुख की ‘सात्त्विक’ संज्ञा होती है। बुद्धि से संबंध छूटते ही उसकी ‘सात्त्विक’ संज्ञा नहीं रहती।
मन में जब किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा होती है, तब वह वस्तु मन में बस जाती है अर्थात मन और बुद्धि का उसके साथ संबंध हो जाता है। जब वह मनोवांछित वस्तु मिल जाती है, तब वह वस्तु मन से निकल जाती है अर्थात वस्तु का में जो खिंचाव था, वह निकल जाता है। उसके निकलते ही अर्थात वस्तु से संबंध-विच्छेद होते ही वस्तु के अभाव का जो दुःख था, वह निवृत्त हो जाता है और नित्य रहने वाले स्वतः सिद्ध सुख का तात्कालिक अनुभव हो जाता है। वास्तव में यह सुख वस्तु के मिलने से नहीं हुआ है, प्रत्युत राग के तात्कालिक मिटने से हुआ है, पर राजस पुरुष भूल से उस सुख को वस्तु के मिलने से होने वाला मान लेता है। वास्तव में देखा जाए तो वस्तु का संयोग बाहर से होता है और प्रसन्नता भीतर से होती है। भीतर से जो प्रसन्नता होती है, वह बाहर के संयोग से पैदा नहीं होती, प्रत्युत भीतर (मन में) बसी हुई वस्तु के साथ जो संबंध था, उस वस्तु से संबंध-विच्छेद होने पर पैदा होती है। तात्पर्य यह है कि वस्तु के मिलते ही अर्थात बाहर से वस्तु का संयोग होते ही भीतर से उस वस्तु से संबंध-विच्छेद हो जाता है और संबंध-विच्छेद होते ही नित्य रहने वाला स्वाभाविक सुख का आभास हो जाता है।
|
|