श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘तत्सुखं राजसं स्मृतम्’- सात्त्विक सुख के लिए तो (सैंतीसवें श्लोक में) ‘प्रोक्तम्’ पद कहा है, पर राजस सुख के लिए यहाँ ‘स्मृतम्’ पद कहने का तात्पर्य है कि पहले भी मनुष्य ने राजस सुख का फल दुःख पाया है; परंतु राग के कारण वह संयोग की तरफ पुनः ललचा उठता है। कारण कि संयोग का प्रभाव उस पर पड़ा हुआ है और परिणाम के प्रभाव को स्वीकार कर ले, तो फिर वह राजस सुख में फँसेगा नहीं। स्मृति, शास्त्र, पुराण आदि में ऐसे बहुत से इतिहास आते हैं, जिनमें मनुष्यों के द्वारा राजस सुख के कारण बहुत दुःख पाने की बात आयी है। इसी बात को स्मरण कराने के लिए लिए यहाँ ‘स्मृतम्’ पद आया है। जिसकी वृत्ति जितनी सात्त्विक होती है, वह उतना ही हरेक विषय के परिणाम के तरफ देखता है। अभी के तात्कालिक सुख की तरफ वह ध्यान नहीं देता। परंतु राजसी वृत्ति वाला परिणाम की तरफ देखता ही नहीं, उसकी वृत्ति तात्कालिक सुख की तरफ ही जाती है। इसलिए वह संसार में फँसा रहता है। राजस पुरुष को संसार का संबंध वर्तमान में तो अच्छा मालूम देता है; परंतु परिणाम में यह हानिकारक है- ‘ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते’।[3] इसलिए साधक को संसार से विरक्त हो जाना चाहिए; राजस सुख में नहीं फँसना चाहिए। संबंध- अब तामस सुख का वर्णन करते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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