श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन: । अर्थ- जो सुख भोग काल में तथा परिणाम में भी आत्मा को मोहित करने वाला है- वह निद्रा, आलस्य और प्रमाद से उत्पन्न सुख तामस कहा गया है। व्याख्या- ‘निद्रालस्यप्रमादोत्थम्’- जब राग अत्यधिक बढ़ जाता है, तब वह तमोगुण का रूप धारण कर लेता है। इसी को मोह कहते हैं। इस मोह- (मूढ़ता के कारण मनुष्य को अधिक सोना अच्छा लगता है। अधिक सोने वाले मनुष्य को गाढ़ नहीं आती। गाढ़ नींद न आने से तंद्रा ज्यादा आती है और स्वप्न भी ज्यादा आते हैं। तंद्रा और स्वप्न में तामस मनुष्य का बहुत समय बरबाद हो जाता है। परंतु तामस मनुष्य को इसी से ही सुख मिलता है, इसलिए इस सुख को निद्रा से उत्पन्न बताया है। जब तमोगुण अधिक बढ़ जाता है, तब मनुष्य की वृत्तियाँ भारी हो जाती हैं। फिर वह आलस्य में समय बरबाद कर देता है। आवश्यक काम सामने आने पर वह कह देता है कि ‘फिर कर लेंगे, अभी तो आराम कर रहे हैं।’ इस प्रकार आलस्य अवस्था में उसको सुख मालूम देता है। परंतु निकम्मा रहने के कारण उसकी इंद्रियों और अंतःकरण में शिथिलता आ जाती है, मन में संसार का फालतू चिन्तन होता रहता है और मन में अशांति, शोक, विषाद, चिन्ता, दुःख होते रहते हैं। जब इससे भी अधिक तमोगुण बढ़ जाता है, तब मनुष्य प्रमाद करने लग जाता है। वह प्रमाद दो तरह का होता है- अक्रिय प्रमाद और सक्रिय प्रमाद। घर, परिवार, शरीर आदि के आवश्यक कामों को न करना और निठल्ले बैठे रहना ‘अक्रिय प्रमाद’[1] है। व्यर्थ क्रियाएँ (देखना, सुनना, सोचना आदि) करना; बीड़ी, सिगरेट, शराब, भाँग, तम्बाकू, खेल-तमाशा आदि दुर्व्यसनों में लगना और चोरी, डकैती, झूठ, कपट, बेईमानी, व्यभिचार, अभक्ष्य-भक्षण आदि दुराचारों में लगना ‘सक्रिय प्रमाद’ है। प्रमाद के कारण तामस पुरुषों को निरर्थक समय बरबाद करने में तथा झूठ, कपट, बेईमानी आदि करने में सुख मिलता है। जैसे काम-धंधा करने वाले पैसे (मजदूरी या वेतन) तो पूरे ले लेते हैं, पर काम पूरा और ठीक ढंग से नहीं करते। चिकित्सक लोग रोगियों का ठीक ढंग से इलाज नहीं करते, जिससे रोगी लोग बार-बार आते रहें और पैसे देते रहें। दूध बेचने वाले पैसों के लोभ में दूध में पानी मिलाकर बेचते हैं। पैसे अधिक देने पर भी वे पानी मिलाना नहीं छोड़ते। ऐसे पापरूप प्रमाद से उनको घोर नरकों की प्राप्ति होती है।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आलस्य और अक्रिय प्रमाद एक जैसे दीखते हुए भी उनमें थोड़ा अंतर है। आलस्य में वृत्तियों के भारी होने से सुख होता है और अक्रिय प्रमाद में कर्तव्य-कर्मों को छोड़ने से सुख होता है।
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज