श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
आज भी जो लोग घबरा रहे हैं, दुःखी हो रहे हैं, वे सब पदार्थों के राग के कारण ही दुःख पा रहे हैं। जो धनी होकर फिर निर्धन हो गया है, वह जितना दुःखी और संतप्त है, उतना दुःख और संताप स्वाभाविक निर्धन को नहीं है; क्योंकि उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक नहीं पड़े हैं। परंतु धनी ने राजस सुख अधिक भोगा है, उसके भीतर सुख के संस्कार अधिक पड़े हैं, इसलिए उसको धन के अभाव का दुःख ज्यादा है। जैसे, जो मनुष्य तरह-तरह सामग्री भोजन करने वाला है, उसके भोजन में कभी थोड़ी सी भी कमी रह जाए तो उसको वह कमी बड़ी खटकती है कि आज भोजन में चटनी नहीं है, खटाई नहीं है, मिठाई नहीं है, अमुक-अमुक चीज नहीं है- इस प्रकार नहीं-नहीं का ही ताँता लगा रहता है। परंतु साधारण आदमी बाजरे की रूखी-सुखी रोटी खाकर भी मौज से रहता है, उसको भोजन में किसी चीज की कमी खटकती ही नहीं। तात्पर्य यह हुआ कि पदार्थों के संयोग से जितना ज्यादा सुख लिया है, उतना ही उसके अभाव का अनुभव होता है। अभाव के अनुभव में दुःख ही होता है। जिस पदार्थ की कामना होती है, उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य उद्योग करते हैं। उद्योग करने पर भी वस्तु मिलेगी या नहीं मिलेगी, इसमें संदेह रहता है। वस्तु न मिले तो उसके अभाव का दुःख होता है, और वस्तु मिल जाए तो उस वस्तु को और भी अधिक प्राप्त करने की इच्छा हो जाती है। इस प्रकार इच्छापूर्ति नयी इच्छा का कारण बन जाती है और इच्छापूर्ति तथा फिर इच्छा की उत्पत्ति- यह चक्कर चलता ही रहता है, इसका कभी अंत नहीं आता। तात्पर्य यह है कि इच्छा कभी मिटती नहीं और इच्छा के रहते हुए अभाव खटकता रहता है। यह अभाव ही विष की तरह है अर्थात दुःखदायी है। जब राजस सुख परिणाम में विष की तरह है, तो फिर राजस सुख लेने वाले जितने लोग हैं, उन सबको सुखभोग के अंत में मर जाना चाहिए? परंतु राजस सुख विष की तरह मारता नहीं, प्रत्युत विष की तरह अरुचि कारक हो जाता है। उसमें पहले जैसी रुचि होती है, वैसी रुचि अंत में नहीं रहती अर्थात वह सुख विष की तरह हो जाता है, साक्षात विष नहीं होता। राजस सुख विष की तरह क्यों होता है? कारण कि विष तो एक जन्म में ही मारता है, पर राजस सुख कई जन्मों तक मारता है। राजस सुख लेने वाला रागी पुरुष शुभकर्म करके यदि स्वर्ग में भी चला जाता है, तो वहाँ भी उसको सुख, शांति नहीं मिलती। स्वर्ग में भी अपने से ऊँची श्रेणी वालों को देखकर ईर्ष्या होती है कि ये हमारे से ऊँचे क्यों हो गये।
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