श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘दीर्घसूत्री’- अमुक काम किस तरीके से बढ़िया और जल्दी हो सकता है- इस बात को वह सोचता ही नहीं। इसलिए वह किसी काम में अविवेकपूर्वक लग भी जाता है तो थोड़े समय में होने वाले काम में भी बहुत ज्यादा समय लगा देता है और उससे काम भी सुचारू रूप से नहीं होता। ऐसा मनुष्य ‘दीर्घसूत्री’ कहलाता है। ‘कर्ता तामस उच्यते’- उपर्युक्त आठ लक्षणों वाला कर्ता ‘तामस’ कहलाता है। छब्बीसवें, सत्ताईसवें और अट्ठाईसवें श्लोक में जितनी बातें आयी हैं, वे सब कर्ता को लेकर ही कही गयी हैं। कर्ता के जैसे लक्षण होते हैं, उन्हीं के अनुसार कर्म होते हैं। कर्ता जिन गुणों को स्वीकार करता है, उन गुणों के अनुसार ही कर्मों का रूप होता है। कर्ता जिस साधन को करता है, वह साधन कर्ता का रूप हो जाता है। कर्ता के आगे जो करण होते हैं, वे भी कर्ता के अनुरूप होते हैं। तात्पर्य यह है कि जैसा कर्ता होता है, वैसे ही कर्म, करण आदि होते हैं। कर्ता सात्त्विक, राजस अथवा तामस होगा तो कर्म आदि भी सात्त्विक, राजस अथवा तामस होंगे। सात्त्विक कर्ता अपने कर्म, बुद्धि आदि को सात्त्विक बनाकर सात्त्विक सुख का अनुभव करते हुए असंगतापूर्वक परमात्मतत्त्व से अभिन्न हो जाता है- ‘दुःखान्त च निगच्छति’।[1] कारण कि सात्त्विक कर्ता का ध्येय परमात्मा होता है। इसलिए वह कर्तृत्वभोक्तृत्व से रहित होकर चिन्मय तत्त्व से अभिन्न हो जाता है; क्योंकि वह तात्विक स्वरूप से अभिन्न ही था। परंतु राजस-तामस कर्ता राजस-तामस कर्म, बुद्धि आदि के साथ तन्मय होकर राजस-तामस सुख में लिप्त होता है। इसलिए वह परमात्मा से अभिन्न नहीं हो सकता। कारण कि राजस-तामस कर्ता का उद्देश्य परमात्मा नहीं होता और उसमें जडता का बंधन भी अधिक होता है। अब यहाँ शंका हो सकती है कि कर्ता का सात्त्विक होना तो ठीक है, पर कर्म सात्त्विक कैसे होते हैं? इसका समाधान यह है कि जिस कर्म के साथ कर्ता का राग नहीं है, कर्तृत्वाभिमान नहीं है लेप (फलेच्छा) नहीं है, वह कर्म सात्त्विक हो जाता है। ऐसे सात्त्विक कर्म से अपना और दुनिया का बड़ा भला होता है। उस सात्त्विक कर्म का जिन-जिन वस्तु, व्यक्ति, पदार्थ, वायुमंडल आदि के साथ संबंध होता है, उन सबमें निर्मलता आ जाती है; क्योंकि निर्मलता सत्त्वगुण का स्वभाव है- ‘तत्र सत्त्वं निर्मलत्वात्’।[2] दूसरी बात, पतंजलि महाराज ने रजोगुण को क्रियात्मक ही माना है- ‘प्रकाशक्रियास्थितिशीलं भूतेंद्रियात्मकं भोगापवर्गार्थ दृश्यम्।’।[3] परंतु गीता रजोगुण को क्रियात्मक मानते हुए भी मुख्यरूप से रागात्मक ही मानती है- ‘रजो रागात्मकं विद्धि’।[4] वास्तव में देखा जाए तो ‘राग’ ही बाँधने वाला है, ‘क्रिया’ नहीं। गीता में कर्म तीन प्रकार के बताये गये हैं- सात्त्विक, राजस और तामस।[5] कर्म करने वाले का भाव सात्त्विक होगा तो वे कर्म ‘सात्त्विक’ हो जाएंगे, भाव राजस होगा तो वे कर्म ‘राजस’ हो जाएंगे और भाव तासम होगा तो वे कर्म ‘तामस’ हो जाएंगे। इसलिए भगवान ने केवल क्रिया को रजोगुणी नहीं माना है। संबंध- सभी कर्म विचारपूर्वक किए जाते हैं। उन कर्म के विचार में बुद्धि और धृति- इन कर्म संग्राहक करणों की प्रधानता होने से अब आगे उनके भेद बताते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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