श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
बुद्धेर्भेदं धृतेश्चैव गुणतस्त्रिविधं श्रृणु ।
व्याख्या- इसी अध्याय के अठारहवें श्लोक में कर्म संग्रह के तीन हेतु बताये गये हैं- करण, कर्म और कर्ता। इनमें से कर्म करने के जो इंद्रियाँ आदि करण हैं, उनके सात्त्विक, राजस और तामस- ये तीन भेद नहीं होते। उन इंद्रियों में बुद्धि की ही प्रधानता रहती है और सभी इंद्रियाँ बुद्धि के अनुसार ही काम करती हैं। इसलिए यहाँ बुद्धि के भेद से करणों के भेद बता रहे हैं। बुद्धि के निश्चय को, विचार को दृढ़ता से ठीक तरह रखने वाली और अपने लक्ष्य से विचलित न होने देने वाली धारण-शक्ति का नाम धृति है। धारण-शक्ति अर्थात धृति के बिना बुद्धि अपने निश्चय पर दृढ़ नहीं रह सकती। इसलिए बुद्धि के साथ ही साथ धृति के भी तीन भेद बताने आवश्यक हो गए।[1] मनुष्य जो कुछ भी करता है, बुद्धिपूर्वक ही करता है अर्थात ठीक सोच-समझकर ही किसी कार्य में प्रवृत्त होता है। उस कार्य में प्रवृत्त होने पर भी उसको धैर्य की बड़ी भारी आवश्यकता होती है उसकी है। उसकी बुद्धि में विचार-शक्ति तेज है और उसे धारण करने वाली शक्ति- धृति श्रेष्ठ है, तो उसकी बुद्धि अपने निश्चित किए हुए लक्ष्य से विचलित नहीं होती। जब बुद्धि अपने लक्ष्य पर दृढ़ रहती है, तब मनुष्य का कार्य सिद्ध हो जाता है। अभी साधकों के लिए कर्म प्रेरक और कर्म-संग्रह का जो प्रकरण चला है, उसमें ज्ञान, कर्म और कर्ता की खास आवश्यकता है। ऐसे ही साधक अपनी साधना में दृढ़ता-पूर्वक लगा रहे, इसके लिए बुद्धि और धृति के भेद को जानने की विशेष आवश्यकता है; क्योंकि उनके भेद को ठीक जानकर ही वह संसार से ऊँचा उठ सकता है। किस प्रकार की बुद्धि और धृति को धारण करके साधक संसार से ऊँचा उठ सकता है और किस प्रकार की बुद्धि और धृति के रहने से उसे ऊँचा उठने में बाधा लग सकती है- यह जानना साधक के लिए बहुत जरूरी है। इसलिए भगवान ने उन दोनों के भेद बताए हैं। भेद बताने में भगवान का भाव यह है कि सात्त्विक की बुद्धि और धृति से ही साधक ऊँचा उठ सकता है, राजसी-तामसी बुद्धि और धृति से नहीं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सांख्ययोग में तो बुद्धि और धृति की खास आवश्यकता है ही; परमात्मप्राप्ति के अन्य जितनी भी साधन है, उन सबमें भी बुद्धि और धृति की बड़ी भारी आवश्यकता है। इसलिए गीता में बुद्धि और धृति- दोनों को साथ-साथ कहा है; जैसे- ‘शनैः शनैरुपरमेद् बुद्धय्या धृतिगृहीतया’ (गीता 6:25), और ‘बुद्धय्या विशुद्ध्या युक्तो धृत्यात्मानं नियम्य च’ (गीता 18:51)
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