श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
तासम कर्म[1] और राजस कर्ता- दोनों में हिंसा बताने का तात्पर्य यह है कि मूढ़ता रहने के कारण तामस मनुष्य की क्रियाएँ विवेकपूर्वक नहीं होतीं; अतः चलने-फिरने, उठने-बैठने आदि में उसके द्वारा हिंसा होती है। राजस मनुष्य अपने सुख के लिए बढ़िया-बढ़िया भोग भोगता है तो उसको देखकर जिनको वे भोग नहीं मिलते, उनके हृदय में जलन होती है, यह हिंसा उस भोग भोगने वाले को ही लगती है। कारण कि कोई भी भोग बिना हिंसा के होता ही नहीं। तात्पर्य है कि तामस मनुष्य के द्वारा तो कर्म में हिंसा होती है और राजस मनुष्य स्वयं हिंसात्मक होता है। ‘अशुचिः’- रागी पुरुष भोग-बुद्धि से जिन वस्तुओं, पदार्थों आदि का संग्रह करता है, वे सब चीजें अपवित्र हो जाती हैं। वह जहाँ रहता है, वहाँ की वायुमंडल अपवित्र हो जाता है। वह जिन कपड़ों को पहनता है, उन कपड़ों में भी अपवित्रता आ जाती है। यही कारण है कि आसक्ति ममता वाले मनुष्य के मरने पर उसके कपड़े आदि को कोई रखना नहीं चाहता। जिस स्थान पर उसके शव को जलाया जाता है, वहाँ कोई भजन-ध्यान करना चाहे तो उसका मन नहीं लगेगा। वहाँ भूल से कोई सो जाएगा तो उसको प्रायः खराब-खराब स्वप्न आएंगे। तात्पर्य यह है कि उत्पत्ति विनाशशील पदार्थों की तरफ आकृष्ट होते ही आसक्ति ममता रूप मलिनता आने लगती है, जिससे मनुष्य का शरीर और शरीर की हड्डियाँ तक अधिक अपवित्र हो जाती हैं। ‘हर्षशोकान्वितः’- उसके सामने दिन में कितनी बार सफलता-विफलता अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति, घटना आदि आते रहते हैं, उनको लेकर वह हर्ष-शोक, राग-द्वेष, सुख-दुःख आदि में ही उलझा रहता है। ‘कर्ता राजसः परिकीर्तितः’- उपर्युक्त लक्षणों वाला कर्ता ‘राजस’ कहा गया है। संबंध- अब तामस कर्ता के लक्षण बताते हैं।
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज