श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
रागी कर्मफलप्रेप्सुर्लुब्धो हिंसात्मकोऽशुचि: । अर्थ- जो कर्ता आसक्ति से युक्त, कर्मों के फल को चाहने वाला और लोभी है तथा दूसरों को कष्ट देने के स्वभाव वाला, अशुद्धाचारी और हर्ष-शोक से लिप्त है, वह राजस कर्ता कहा गया है। व्याख्या- ‘रागी’- राग का स्वरूप रजोगुण होने के कारण भगवान ने राजस कर्ता के लक्षणों में सबसे पहले ‘रागी’ पद दिया है। राग का अर्थ है- कर्मों में, कर्मों के फलों में तथा वस्तु, पदार्थ आदि में मन का खिंचाव होना, मन की प्रियता होना। इन चीजों का जिस पर रंग चढ़ जाता है, वह ‘रागी’ होता है। ‘कर्मफलप्रेप्सुः’- राजस मनुष्य कोई भी काम करेगा तो वह किसी फल की चाहना को लेकर ही करेगा; जैसे- मैं ऐसा-ऐसा अनुष्ठान कर रहा हूँ, दान दे रहा हूँ, उससे यहाँ धन, मान, बड़ाई आदि मिलेंगे और परलोक में स्वर्गादि के भोग, सुख आदि मिलेंगे; मैं ऐसी-ऐसी दवाईयों का सेवन कर रहा हूँ तो उनमें मेरा शरीर नीरोग रहेगा, आदि। ‘लुब्धः’- राजस मनुष्य को जितना जो कुछ मिलता है, उसमें वह संतोष नहीं करता, प्रत्युत ‘जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई’ की तरह ‘और मिलता रहे, और मिलता रहे’ अर्थात आदर, सत्कार, महिमा आदि अधिक से अधिक होते रहे धन, पुत्र, परिवार आदि अधिक से अधिक बढ़ते रहें- इस प्रकार की लाग लगी रहती है, लोभ लगा रहता है। ‘हिंसात्मकः’- वह हिंसा के स्वभाव वाला होता है। अपने स्वार्थ के लिए वह दूसरों के नुकसान की, दुःख की परवाह नहीं करता। वह ज्यों-ज्यों अधिक भोग सामग्री इकट्ठी करके भोग भोगता है, त्यों ही त्यों दूसरे अभाव ग्रस्त लोगों के हृदय में जलन पैदा होती है। अतः दूसरों के दुःख की परवाह न करना तथा भोग भोगना हिंसा ही है।
|
संबंधित लेख
श्लोक संख्या | विषय | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज