श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना । अर्थ- ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय- यह तीन प्रकार की कर्म-प्रेरणा है और कर्ता, करण तथा क्रिया-यह तीन प्रकार का कर्म-संग्रह है। व्याख्या- इसी अध्याय के चौदहवें श्लोक में भगवान ने कर्मों के बनने में पाँच हेतु बताये- अधिष्ठान, कर्ता, करण, चेष्ठा और दैव (संस्कार)। इन पाँचों में भी मूल हेतु है- कर्ता। इसी मूल हेतु को मिटाने के लिए भगवान ने सोलहवें श्लोक में कर्तृत्वभाव रखने वाले की बड़ी निन्दा की और सत्रहवें श्लोक में कर्तृत्वभाव न रखने वाले की बड़ी प्रशंसा की। कर्तृत्वभाव बिलकुल न रहे, यह साफ-साफ समझाने के लिए ही अठारहवाँ श्लोक कहा गया है। ‘ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना’- ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता- इन तीनों से कर्म-प्रेरणा होती है। ‘ज्ञान’ को सबसे पहले कहने में यह भाव है कि हरेक मनुष्य की कोई भी प्रवृत्ति होती है तो प्रवृत्ति से पहले ज्ञान होता है। जैसे, जल पीने की प्रवृत्ति से पहले प्यास का ज्ञान होता है, फिर वह जल से प्यास बुझाता है। जल आदि जिस विषय का ज्ञान होता है, वह ‘ज्ञेय’ कहलाता है और जिसको ज्ञान होता है, वह ‘परिज्ञाता’ कहलाता है। ज्ञान, ज्ञेय और परिज्ञाता- तीनों होने से ही कर्म करने की प्रेरणा होती है। यदि इन तीनों में से एक भी न हो तो कर्म करने की प्रेरणा नहीं होती। ‘परिज्ञाता’ उसको कहते हैं, जो ‘परितः’ ज्ञाता है अर्थात जो सब तरह की क्रियाओं की स्फुरणा का ज्ञाता है। वह केवल ‘ज्ञाता’ मात्र है अर्थात उसे क्रियाओं की स्फुरणामात्र का ज्ञान होता है, उसमें अपने लिए कुछ चाहने का अथवा उस क्रिया को करने का अभिमान आदि बिलकुल नहीं होता। कोई भी क्रिया करने की स्फुरणा एक व्यक्ति विशेष में ही होती है। इसलिए शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध- इन विषयों को लेकर सुनने वाला, स्पर्श करने वाला, देखने वाला, चखने वाला और सूँघने वाला- इस तरह अनेक ‘कर्ता’ हो सकते हैं; परंतु उन सबको जानने वाला एक ही रहता है, उसे ही यहाँ ‘परिज्ञाता’ कहा है। |
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