श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
‘अहम्’ दो प्रकार का होता है- ‘अहंस्फूर्ति’ और अहंकृति। गाढ़ नींद से उठते ही सबसे पहले मनुष्य को अपने होनेपन (सत्तामात्र) का भान होता है, इसको ‘अहंस्फूर्ति’ कहते हैं। इसके बाद वह अपने में ‘मैं अमुक नाम, वर्ण, आश्रम आदि का हूँ’- ऐसा आरोप करता है, यही असत् का संबंध है। असत् के संबंध से अर्थात शरीर के साथ तादात्म्य मानने से शरीर की क्रिया को लेकर ‘मैं करता हूँ’- ऐसा भाव उत्पन्न होता है, इसको ‘अहंकृति’ कहते हैं।
‘अहम्’ को लेकर ही अपने में परिच्छिन्नता आती है। इसलिए अहंस्फूर्ति में भी किञ्चित परिछिन्नता (व्यक्तित्व) रह सकती है। परंतु यह परिच्छिन्नता बंधनकारक नहीं होती। कारण कि अहंकृति अर्थात कर्तृत्व के बिना अपने में गुण-दोष का आरोप नहीं होता। अहंकृति आने से ही अपने में गुण-दोष का आरोप होता है, जिससे शुभ-अशुभ कर्म बनते हैं। बोध होने पर अहंस्फूर्ति में जो परिछिन्नता है, वह जल जाती है और स्फूर्तिमात्र रह जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्य न मरता है और न बँधता है।
‘न हन्ति न निबध्यते’ (न मारता है और न बाँधता है) का क्या भाव है? एक निर्वकल्प- अवस्था होती है और एक निर्विकल्प-बोध होता है। निर्विकल्प-अवस्था साधन साध्य है और उसका उत्थान भी होता है अर्थात वह एकरस नहीं रहती। इस निर्विकल्प-अवस्था में भी असंगता होने पर स्वतः सिद्ध निर्विकल्प-बोध का अनुभव होता है। निर्विकल्प-बोध साधन-साध्य नहीं है और उसमें निर्विकल्पता किसी भी अवस्था में किञ्चिन्मात्र भी भंग नहीं होती। निर्विकल्पबोध में कभी परिवर्तन हुआ नहीं, होगा नहीं और होना संभव भी नहीं। तात्पर्य है कि उस निर्विकल्पबोध में कभी हलचल आदि नहीं होते, यही ‘न हन्ति न निबध्यते’ का भाव है।
अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप न रहने के उपाय क्या है? क्रियारूप से परिवर्तन केवल प्रकृति में ही होता है और उन क्रियाओं का भी आरंभ और अंत होता है तथा उन कर्मों के फलरूप से जो पदार्थ मिलते हैं, उनका भी संयोग-वियोग होता है। इस प्रकार क्रिया और पदार्थ- दोनों के साथ संयोग-वियोग होता रहता है। संयोग-वियोग होने पर भी स्वयं तो प्रकाशक रूप से ज्यों का त्यों ही रहता है। विवेक-विचार से ऐसा अनुभव होने पर अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप नहीं रहता।
संबंध- ज्ञान और प्रवृत्ति (क्रिया) दोषी नहीं होते, प्रत्युत कर्तृत्वाभिमान ही दोषी होता है; क्योंकि कर्तृत्वाभिमान से ही कर्म संग्रह होता है- यह बात आगे के श्लोक में बताते हैं।
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