श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
वास्तव में प्रकृति ही क्रिया और फल में परिणत होती है। परंतु इस वास्तविकता का अनुभव न होने से ही पुरुष (चेतन) कर्ता और भोक्ता बनता है। कारण कि जब अहंकार पूर्वक क्रिया होती है, तब कर्ता, करण और कर्म- तीनों मिलते हैं और तभी कर्मसंग्रह होता है। परंतु जिसमें अहंकृतभाव नहीं रहा, केवल सबका प्रकाशक, आश्रय, सामान्य चेतन ही रहा है, फिर वह कैसे किसको मारे? और कैसे किससे बँधे? उसका ‘मारना’ और ‘बँधना’ संभव ही नहीं है।[1] संपूर्ण प्राणियों को मारना क्या है? जिसमें अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में लेप नहीं है- ऐसे मनुष्य का शरीर जिस वर्ण और आश्रम में रहता है, उसके अनुसार उसके सामने जो परिस्थिति आ जाती है, उसमें प्रवृत्त होने पर उसे पाप नहीं लगता। जैसे, किसी जीवन्मुक्त क्षत्रिय के लिए स्वतः युद्ध की परिस्थिति प्राप्त हो जाए तो वह उसके अनुसार सबको मारकर भी न तो मारता है और न बँधता है। कारण कि उसमें अभिमान और स्वार्थभाव नहीं है। यहाँ अर्जुन के सामने भी युद्ध का प्रसंग है। इसलिए भगवान ने ‘हत्वापि’ पद से अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरणा की है। ‘अपि’ पद का भाव है- ‘कर्मण्यभिप्रवृत्तोऽपि नैव किञ्चित्करोति सः’[2] ‘कर्मों में अच्छी तरह प्रवृत्त होने पर भी वह कुछ नही करता।’ ‘सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते’[3] ‘सर्वथा बर्ताव करता हुआ भी वह योगी मेरे में रहता है। ‘शरीरस्थोऽपि कौन्तेय न करोति न लिप्यते’[4] ‘शरीर में स्थित होने पर भी न करता है और न लिप्त होता है।’ तात्पर्य यह है कि कर्मों में सांगोपांग प्रवृत्त होने के समय और जिस समय कर्मों में प्रवृत्ति नहीं है, उस समय भी स्वरूप की निर्विकल्पता ज्यों की त्यों रहती है अर्थात क्रिया करने से अथवा क्रिया न करने से स्वरूप में कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। कारण कि क्रिया-विभाग प्रकृति में है, स्वरूप में नहीं। वास्तव में यह अहंभाव (व्यक्तित्व) ही मनुष्य में भिन्नता करने वाला है। अहंभाव न रहने से परमात्मा के साथ भिन्नता का कोई कारण ही नहीं है। फिर तो केवल सबका आश्रय, प्रकाशक सामान्य चेतन रहता है। वह न तो क्रिया का कर्ता बनता है, और न फल का भोक्ता ही बनता है। क्रियाओं का कर्ता और फल का भोक्ता तो वह पहले भी नहीं था। केवल नाशवान शरीर के साथ संबंध मानकर अहंभाव को स्वीकार किया है, उसी अहंभाव से उसमें कर्तापन और भोक्तापन आया है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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