श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते ।
हत्वापि स इमांल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते ॥17॥
अर्थ- जिस पुरुष के अन्त: करण में 'मैं कर्ता हूँ' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थों में और कर्मों में लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बँधता है।
व्याख्या- ‘यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते’- जिसमें ‘मैं करता हूँ’- ऐसा अहंकृतभाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में ‘मेरे को फल मिलेगा’- ऐसे स्वार्थ- भाव का लेप नहीं है। इसको ऐसे समझना चाहिए- जैसे शास्त्रविहित और शास्त्रनिषिद्ध- ये सभी क्रियाएँ एक प्रकाश में होती हैं और प्रकाश के ही आश्रित होती हैं; परंतु प्रकाश किसी भी क्रिया का ‘कर्ता’ नहीं बनता अर्थात प्रकाश उन क्रियाओं को न करने वाला है और न कराने वाला है। ऐसे ही स्वरूप की सत्ता के बिना विहित और निषिद्ध- कोई भी क्रिया नहीं होती; परंतु वह सत्ता उन क्रियाओं को न करने वाली है और न कराने वाली है- ऐसा जिसको साक्षात अनुभव हो जाता है, उसमें ‘मैं क्रियाओं को करने वाला हूँ’- ऐसा अहंकृतभाव नहीं रहता और ‘अमुक चीज चाहिए, अमुक चीज नहीं चाहिए’; ‘अमुक घटना होनी चाहिए, अमुक घटना नहीं होनी चाहिए’- ऐसा बुद्धि में लेप (द्वंद्वमोह) नहीं रहता। अहंकृतभाव और बुद्धि में लेप न रहने से उसके कर्तृत्व और भोक्तृत्व- दोनों नष्ट हो जाते हैं, अर्थात अपने में कर्तृत्व और भोक्तृत्व- ये दोनों ही नहीं हैं, इसका वास्तविक अनुभव हो जाता है।
प्रकृति का कार्य स्वतः स्वाभाविक ही चल रहा है, परिवर्तित हो रहा है और अपना स्वरूप केवल उसका प्रकाशक है- ऐसा समझकर जो अपने स्वरूप में स्थित रहता है, उसमें ‘मैं करता हूँ’ ऐसा अहंकृतभाव नहीं होता; क्योंकि अहंकृतभाव प्रकृति के कार्य शरीर को स्वीकार करने से ही होता है। अहंकृतभाव सर्वथा मिटने पर उसकी बुद्धि में ‘फल मेरे को मिले’ ऐसा लेप भी नहीं होता अर्थात फल की कामना नहीं होती। अहंकृतभाव एक मनोवृत्ति है। मनोवृत्ति होते हुए भी यह भाव स्वयं (कर्ता) में रहता है; क्योंकि कर्तृत्व और अकृर्तृत्व भाव स्वयं ही स्वीकार करता है।
‘हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते’- वह इन संपूर्ण प्राणियों को एक साथ मार डाले, तो भी वह मारता नहीं; क्योंकि उसमें कर्तृत्व नहीं है और वह बँधता भी नहीं; क्योंकि उसमें भोक्तृत्व नहीं है। तात्पर्य यह है कि उसका न क्रियाओं के साथ संबंध है और न फल के साथ संबंध है।
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