श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
क्रियमाण-कर्म के संस्कार-अंश के भी दो भेद हैं- शुद्ध एवं पवित्र संस्कार और अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्रविहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे शुद्ध एवं पवित्र होते हैं और शास्त्र, नीति, लोकमर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं। इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति, आदत) बनता है। उन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध, निर्मल, पवित्र हो जाता है; परंतु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है, उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन्मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भी भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं, पर वे कर्म दोषी नहीं होते, प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से दुनिया का कल्याण होता है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ एक सुनी हुई घटना है। किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह गढ़कर देता रहता था। ऐसे वह पैसे कमाता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया। इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिए उठकर बाहर आये। उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है? तो पहरेदार ने कहा- ‘तू चुप रह, हल्ला मत कर। इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ।’ सज्जन बोले- ‘मैं कैसे ले लूँ? मैं चोर थोडे ही हूँ।’ तो पहरेदार ने कहा- ‘देख, तू समझ जा, मेरी बात मान ले, नहीं तो दुःख पाएगा।’ पर वे सज्जन माने नहीं। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी। सीटी सुनते ही और जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गए। उसने सबसे कहा कि ‘यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है।’ तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और राजकीय आदमियों के हवाले कर दिया। जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा ‘मैंने नहीं मारा है, उस पहरेदार सिपाही ने मारा है।’ सब सिपाही आपस में मिले हुए थे, उन्होंने कहा कि ‘नहीं इसी ने मारा है, हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है,’ इत्यादि।
मुकदमा चला। चलते-चलते अंत में उस सज्जन के लिए फाँसी का हुक्म हुआ। फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला- ‘देखो, सरासर अन्याय हो रहा है। भगवान के दरबार में कोई न्याय नहीं। मैंने मारा नहीं, मुझे दंड हो और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाए, जुर्माना भी नहीं; यह अन्याय है!’ जज पर उसके वचनों का असर पड़ा कि वास्तव में यह सच्च बोल रहा है, इसकी किसी तरह से जाँच होनी चाहिए। ऐसा विचार करके उस जज ने एक षडयंत्र रचा।
सुबह होते ही एक आदमी रोता-चिल्लाता हुआ आया और बोला- ‘हमारे भाई की हत्या हो गयी, सरकार! इसकी जाँच होनी चाहिए।’ तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे व्यक्तियों की लाश उठाकर लाने के लिए भेजा। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाट पर लाश के ऊपर कपड़ा बिछा था। खून बिखरा था। दोनों ने उस खाट को उठाया और उठाकर ले चले। साथ का दूसरा आदमी खबर देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया। तब चलते-चलते सिपाही ने कैदी से कहा- ‘देख, उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती, अब देख लिया सच्चाई का फल?’ कैदी ने कहा- ‘मैंने तो अपना काम सच्चाई का ही किया था, फाँसी हो गयी तो हो गयी। हत्या की तूने और दंड भोगना पड़ा मेरे को! भगवान के यहाँ न्याय नहीं!’
खाट पर झूठमूठ मरे हुए समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खून भरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला। यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ। सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया। परंतु जज के मन में संतोष नहीं हुआ। उसने कैदी को एकांत में बुलाकर कहा कि ‘इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ, पर सच-सच बताओ कि इस जन्म में तुमने कोई हत्या की है क्या?’ वह बोला- बहुत पहले की घटना है। एक दुष्ट था, जो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्री के पास आया करता था। मैंने अपनी स्त्री को तथा उसको अलग-अलग खूब समझाया। पर वह माना नहीं। एक रात वह घर पर था और अचानक मैं आ गया। मेरे को गुस्सा आया हुआ था। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया। इस घटना का किसी को पता नहीं लगा। यह सुनकर जज बोला- तुम्हारे को इस समय फाँसी होगी ही; मैंने भी सोचा कि मैंने किसी से घूस (रिश्वत) नहीं खायी, कभी बेईमानी नहीं की, फिर मेरे हाथ से इसके लिए फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया? अब संतोष हुआ। उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा। सिपाही को अलग फाँसी होगी।
[उस जज ने चोर सिपाही को पकड़कर अपने कर्तव्य का पालन किया था। फिर उसको जो दंड मिला है, वह उसके कर्तव्य-पालन का फल नहीं है, प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी, उस हत्या का फल है। कारण कि मनुष्य को अपनी रक्षा करने का अधिकार है, मारने का अधिकार नहीं। मारने का अधिकार रक्षक क्षत्रिय का, राजा का है। अतः कर्तव्य का पालन करने के कारण उस पाप (हत्या) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोक के भयंकर दंड से उसका छुटकारा हो गया। कारण कि इस लोक में जो दंड भोग लिया जाता है, उसका थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है, थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोक में बड़ा भयंकर (ब्याज सहित) दंड भोगना पड़ता है।]
इस कहानी से यह पता लगता है कि मनुष्य के कब किए पाप का फल कब मिलेगा- इसका कुछ पता नहीं। भगवान का विधान विचित्र है। जब तक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं, तब तक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है। चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में।
अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। नाभुक्तं क्षीयते कर्म जन्मकोटिशतैरपि ।।
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