श्रीमद्भगवद्गीता -रामसुखदास अध्याय 18 पृ. 1289

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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय



परंतु व्यक्ति के पाप कितनी मात्रा के थे और उनका भोग कितनी मात्रा में हुआ अर्थात उन पापकर्मों का फल उसने पूरा भोगा या अधूरा भोगा- इसका पूरा पता मनुष्य को नहीं लगता; क्योंकि मनुष्य के पास इसका कोई माप-तौल नहीं है। परंतु भगवान को इसका पूरा पता है; अतः उनके कानून के अनुसार उन पापों का फल यहाँ जितने अंश में कम भोगा गया है, उतना इस जन्म में या मरने के बाद भोगना ही पड़ेगा। इसलिए मनुष्य को ऐसी शंका नहीं करना चाहिए कि मेरा पाप तो कम था, पर दंड अधिक भोगना पड़ा अथवा मैंने पाप तो किया नहीं, पर दंड मुझे मिल गया! कारण कि यह सर्वज्ञ, सर्वसुहृद, सर्वसमर्थ भगवान का विधान है कि पाप से अधिक दंड कोई नहीं भोगता और जो दंड मिलता है, वह किसी न किसी पाप का ही फल होता है।[1] इसी तरह धन-संपत्ति, मान, आदर, प्रशंसा, नीरोगता आदि अनुकूल परिस्थिति के रूप में पुण्य-कर्मों का जितना फल यहाँ भोग लिया है, उतना अंश तो यहाँ नष्ट हो ही गया और जितना बाकी रह गया है, वह परलोक में फिर भोगा जा सकता है। यदि पुण्यकर्मों का पूरा फल यहीं भोग लिया गया है तो पुण्य यहीं पर समाप्त हो जाएंगे।

क्रियमाण-कर्म के संस्कार-अंश के भी दो भेद हैं- शुद्ध एवं पवित्र संस्कार और अशुद्ध एवं अपवित्र संस्कार। शास्त्रविहित कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे शुद्ध एवं पवित्र होते हैं और शास्त्र, नीति, लोकमर्यादा के विरुद्ध कर्म करने से जो संस्कार पड़ते हैं, वे अशुद्ध एवं अपवित्र होते हैं।

इन दोनों शुद्ध और अशुद्ध संस्कारों को लेकर स्वभाव (प्रकृति, आदत) बनता है। उन संस्कारों में से अशुद्ध अंश का सर्वथा नाश करने पर स्वभाव शुद्ध, निर्मल, पवित्र हो जाता है; परंतु जिन पूर्वकृत कर्मों से स्वभाव बना है, उन कर्मों की भिन्नता के कारण जीवन्मुक्त पुरुषों के स्वभावों में भी भिन्नता रहती है। इन विभिन्न स्वभावों के कारण ही उनके द्वारा विभिन्न कर्म होते हैं, पर वे कर्म दोषी नहीं होते, प्रत्युत सर्वथा शुद्ध होते हैं और उन कर्मों से दुनिया का कल्याण होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. एक सुनी हुई घटना है। किसी गाँव में एक सज्जन रहते थे। उनके घर के सामने एक सुनार का घर था। सुनार के पास सोना आता रहता था और वह गढ़कर देता रहता था। ऐसे वह पैसे कमाता था। एक दिन उसके पास अधिक सोना जमा हो गया। रात्रि में पहरा लगाने वाले सिपाही को इस बात का पता लग गया। उस पहरेदार ने रात्रि में उस सुनार को मार दिया और जिस बक्से में सोना था, उसे उठाकर चल दिया। इसी बीच सामने रहने वाले सज्जन लघुशंका के लिए उठकर बाहर आये। उन्होंने पहरेदार को पकड़ लिया कि तू इस बक्से को कैसे ले जा रहा है? तो पहरेदार ने कहा- ‘तू चुप रह, हल्ला मत कर। इसमें से कुछ तू ले ले और कुछ मैं ले लूँ।’ सज्जन बोले- ‘मैं कैसे ले लूँ? मैं चोर थोडे ही हूँ।’ तो पहरेदार ने कहा- ‘देख, तू समझ जा, मेरी बात मान ले, नहीं तो दुःख पाएगा।’ पर वे सज्जन माने नहीं। तब पहरेदार ने बक्सा नीचे रख दिया और उस सज्जन को पकड़कर जोर से सीटी बजा दी। सीटी सुनते ही और जगह पहरा लगाने वाले सिपाही दौड़कर वहाँ आ गए। उसने सबसे कहा कि ‘यह इस घर से बक्सा लेकर आया है और मैंने इसको पकड़ लिया है।’ तब सिपाहियों ने घर में घुसकर देखा कि सुनार मरा पड़ा है। उन्होंने उस सज्जन को पकड़ लिया और राजकीय आदमियों के हवाले कर दिया। जज के सामने बहस हुई तो उस सज्जन ने कहा ‘मैंने नहीं मारा है, उस पहरेदार सिपाही ने मारा है।’ सब सिपाही आपस में मिले हुए थे, उन्होंने कहा कि ‘नहीं इसी ने मारा है, हमने खुद रात्रि में इसे पकड़ा है,’ इत्यादि।
    मुकदमा चला। चलते-चलते अंत में उस सज्जन के लिए फाँसी का हुक्म हुआ। फाँसी का हुक्म होते ही उस सज्जन के मुख से निकला- ‘देखो, सरासर अन्याय हो रहा है। भगवान के दरबार में कोई न्याय नहीं। मैंने मारा नहीं, मुझे दंड हो और जिसने मारा है, वह बेदाग छूट जाए, जुर्माना भी नहीं; यह अन्याय है!’ जज पर उसके वचनों का असर पड़ा कि वास्तव में यह सच्च बोल रहा है, इसकी किसी तरह से जाँच होनी चाहिए। ऐसा विचार करके उस जज ने एक षडयंत्र रचा।
    सुबह होते ही एक आदमी रोता-चिल्लाता हुआ आया और बोला- ‘हमारे भाई की हत्या हो गयी, सरकार! इसकी जाँच होनी चाहिए।’ तब जज ने उसी सिपाही को और कैदी सज्जन को मरे व्यक्तियों की लाश उठाकर लाने के लिए भेजा। दोनों उस आदमी के साथ वहाँ गये, जहाँ लाश पड़ी थी। खाट पर लाश के ऊपर कपड़ा बिछा था। खून बिखरा था। दोनों ने उस खाट को उठाया और उठाकर ले चले। साथ का दूसरा आदमी खबर देने के बहाने दौड़कर आगे चला गया। तब चलते-चलते सिपाही ने कैदी से कहा- ‘देख, उस दिन तू मेरी बात मान लेता तो सोना मिल जाता और फाँसी भी नहीं होती, अब देख लिया सच्चाई का फल?’ कैदी ने कहा- ‘मैंने तो अपना काम सच्चाई का ही किया था, फाँसी हो गयी तो हो गयी। हत्या की तूने और दंड भोगना पड़ा मेरे को! भगवान के यहाँ न्याय नहीं!’
    खाट पर झूठमूठ मरे हुए समान पड़ा हुआ आदमी उन दोनों की बातें सुन रहा था। जब जज के सामने खाट रखी गयी तो खून भरे कपड़े को हटाकर वह उठ खड़ा हुआ और उसने सारी बात जज को बता दी कि रास्ते में सिपाही यह बोला और कैदी यह बोला। यह सुनकर जज को बड़ा आश्चर्य हुआ। सिपाही भी हक्का-बक्का रह गया। सिपाही को पकड़कर कैद कर लिया गया। परंतु जज के मन में संतोष नहीं हुआ। उसने कैदी को एकांत में बुलाकर कहा कि ‘इस मामले में तो मैं तुम्हें निर्दोष मानता हूँ, पर सच-सच बताओ कि इस जन्म में तुमने कोई हत्या की है क्या?’ वह बोला- बहुत पहले की घटना है। एक दुष्ट था, जो छिपकर मेरे घर मेरी स्त्री के पास आया करता था। मैंने अपनी स्त्री को तथा उसको अलग-अलग खूब समझाया। पर वह माना नहीं। एक रात वह घर पर था और अचानक मैं आ गया। मेरे को गुस्सा आया हुआ था। मैंने तलवार से उसका गला काट दिया और घर के पीछे जो नदी है, उसमें फेंक दिया। इस घटना का किसी को पता नहीं लगा। यह सुनकर जज बोला- तुम्हारे को इस समय फाँसी होगी ही; मैंने भी सोचा कि मैंने किसी से घूस (रिश्वत) नहीं खायी, कभी बेईमानी नहीं की, फिर मेरे हाथ से इसके लिए फाँसी का हुक्म लिखा कैसे गया? अब संतोष हुआ। उसी पाप का फल तुम्हें यह भोगना पड़ेगा। सिपाही को अलग फाँसी होगी।
    [उस जज ने चोर सिपाही को पकड़कर अपने कर्तव्य का पालन किया था। फिर उसको जो दंड मिला है, वह उसके कर्तव्य-पालन का फल नहीं है, प्रत्युत उसने बहुत पहले जो हत्या की थी, उस हत्या का फल है। कारण कि मनुष्य को अपनी रक्षा करने का अधिकार है, मारने का अधिकार नहीं। मारने का अधिकार रक्षक क्षत्रिय का, राजा का है। अतः कर्तव्य का पालन करने के कारण उस पाप (हत्या) का फल उसको यहीं मिल गया और परलोक के भयंकर दंड से उसका छुटकारा हो गया। कारण कि इस लोक में जो दंड भोग लिया जाता है, उसका थोड़े में ही छुटकारा हो जाता है, थोड़े में ही शुद्धि हो जाती है, नहीं तो परलोक में बड़ा भयंकर (ब्याज सहित) दंड भोगना पड़ता है।]
    इस कहानी से यह पता लगता है कि मनुष्य के कब किए पाप का फल कब मिलेगा- इसका कुछ पता नहीं। भगवान का विधान विचित्र है। जब तक पुराने पुण्य प्रबल रहते हैं, तब तक उग्र पाप का फल भी तत्काल नहीं मिलता। जब पुराने पुण्य खत्म होते हैं, तब उस पाप की बारी आती है। पाप का फल (दण्ड) तो भोगना ही पड़ता है। चाहे इस जन्म में भोगना पड़े या जन्मान्तर में।
    अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्। नाभुक्तं क्षीयते कर्म जन्मकोटिशतैरपि ।।

संबंधित लेख

श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
श्लोक संख्या विषय पृष्ठ संख्या
प्रथम अध्याय
1-11 पाण्डव और कौरव सेना के मुख्य महारथियों के नामों का वर्णन -
12-19 दोनों पक्षों की सेनाओं के शंख वादन का वर्णन 15
20-27 अर्जुन के द्वारा सेना-निरीक्षण 27
28-47 अर्जुन के द्वारा कायरता, शोक और पश्चात्तापयुक्त वचन कहना तथा संजय द्वारा शोकाविष्ट अर्जुन की अवस्था का वर्णन 39
पहले अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 50
द्वितीय अध्याय
1-10 अर्जुन की कायरता के विषय में संजय द्वारा भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद का वर्णन 1
11-30 सांख्ययोग का वर्णन 17
31-38 क्षात्रधर्म की दृष्टि से युद्ध करने की आवश्यकता का प्रतिपादन 52
39-53 कर्मयोग का वर्णन 61
54-72 स्थित प्रज्ञ के लक्षणों आदि का वर्णन 81
दूसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 104
तृतीय अध्याय
1-8 सांख्ययोग और कर्मयोग की दृष्टि से कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 105
9-19 यक्ष और सृष्टिचक्र की परम्परा सुरक्षित रखने के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 121
20-29 लोक संग्रह के लिये कर्तव्य-कर्म करने की आवश्यकता का निरूपण 147
30-35 राग-द्वेषरहित होकर स्वधर्म के अनुसार कर्तव्य-कर्म करने की प्रेरणा 165
36-43 पापों के कारणभूत 'काम' को मारने की प्रेरणा 189
तीसरे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 210
चतुर्थ अध्याय
1-15 कर्मयोग की परम्परा और भगवान के जन्मों तथा कर्मों की दिव्यता का वर्णन 211
16-32 कर्मों के तत्त्व का और तदनुसार यज्ञों का वर्णन 256
33-42 ज्ञानयोग और कर्मयोग की प्रशंसा तथा प्रेरणा 288
चौथे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 306
पंचम अध्याय
1-6 सांख्यायोग तथा कर्मयोग की एकता का प्रतिपादन और कर्मयोग की प्रंशसा 307
7-12 सांख्ययोग और कर्मयोग के साधन का प्रकार 322
13-26 फल सहित सांख्ययोग का विषय 338
27-29 ध्यान और भक्ति का वर्णन 365
पाँचवे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 370
षष्ठ अध्याय
1-4 कर्मयोग का विषय और योगारूढ़ मनुष्य के लक्षण 371
5-9 आत्मोद्धार के लिये प्रेरणा और सिद्ध कर्मयोग के लक्षण 382
10-15 आसन की विधि और फलसहित सगुण-साकार के ध्यान का वर्णन 397
16-23 नियमों का फल सहित स्वरूप के ध्यान का वर्णन 407
24-28 फलसहित निर्गुण-निराकार के ध्यान का वर्णन 422
29-32 सगुण और निर्गुण के ध्यान-योगियों का अनुभव 432
33-36 मन के विग्रह का विषय 441
37-47 योगभ्रष्ट की गति का वर्णन और भक्ति योगी की महिमा 450
छठे अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 473
सप्तम अध्याय
1-7 भगवान के द्वारा समग्ररूप के वर्णन की प्रतिज्ञा करना तथा अपरा-परा प्रकतियों के संयोग से प्राणियों की उतपत्ति बताकर अपने को सबका मूल कारण बताना 474
8-12 कारण रूप से भगवान की विभूतियों का वर्णन 496
13-19 भगवान के शरण होने वालों का और शरण न होने वालों का वर्णन 508
20-23 अन्य देवताओं की उपासनाओं का फलसहित वर्णन 538
24-30 भगवान के प्रभाव को जानने वालों की निन्दा और जानने वालों की प्रशंसा तथा भगवान के समरूप का वर्णन 544
सातवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 566
अष्टम अध्याय
1-7 अर्जुन के सात प्रश्न और भगवान के द्वारा उनका उत्तर देते हुए सब के समय में अपना स्मरण करने की आज्ञा देना 567
8-16 सगुण-निराकार, निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार की उपासना फलसहित वर्णन 587
17-22 ब्रह्मलोक तक की अवधिका और भगवान की महत्ता तथा भक्ति का वर्णन 601
23-28 शुक्ल और कृष्ण गति का वर्णन उसको जानने वाले योगी की महिमा 609
आठवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 619
नवम अध्याय
1-6 प्रभाव सहित विज्ञान का वर्णन 621
7-10 महासर्ग और महाप्रलय का वर्णन 638
11-15 भगवान का तिरस्कार करने वाले एवं आसुरी, राक्षसी और मोहिनी प्रकृति का आश्रय लेने वालों का कथन तथा दैवी प्रकृति का आश्रय लेने वाले भक्तों के भजन का वर्णन 645
16-19 कार्य-कारण रूप से भगवत्स्वरूप विभूतियों का वर्णन 654
20-25 सकाम और निष्काम उपासना का फलसहित वर्णन 658
पदार्थों और क्रियाओं को भगवदर्पण करने का फल बताकर भक्ति के अधिकारियों का और भक्ति का वर्णन 669
नवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 704
दशम अध्याय
1-7 भगवान की विभूति और योग का कथन तथा उनको जानने की महिमा 705
8-11 फलसहित भगवद्भभक्ति और भगवत्कृपा का प्रभाव 719
12-18 अर्जुन के द्वारा भगवान की स्तुति और योग तथा विभूतियों को कहने के लिये प्रार्थना 728
19-42 भगवान के द्वारा अपनी विभूतियों का और योग का वर्णन 735
दसवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 769
एकादश अध्याय
1-8 विराट्‍रूप दिखाने के लिये अर्जुन की प्रार्थन और भगवान के द्वारा अर्जुन को दिव्य चक्षु प्रदान करना 771
9-14 संजय द्वारा धृतराष्ट्र के प्रति विराट्‍ रूप का वर्णन 783
15-31 अर्जुन के द्वारा विराट् रूप को देखना और उसकी स्तुति करना 789
32-35 भगवान के द्वारा अपने अत्युग्र विराट रूप का परिचय और युद्ध की आज्ञा 809
36-46 अर्जुन के द्वारा विराटरूप भगवान की स्तुति-प्रार्थना 817
47-50 भगवान के द्वारा विराटरूप के दर्शन की दुर्लभता बताना और अर्जुन को आश्वासन देना 831
51-55 भगवान के द्वारा चतुर्भुज रूप की महत्ता और उसके दर्शन का उपाय बताना 839
ग्यारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 848
द्वादश अध्याय
1-12 सगुण और निर्गुण उपासकों की श्रेष्ठता का निर्णय और भगत्प्राप्ति के चार साधनों का वर्णन 850
13-20 सिद्ध भक्तों के उन्तालीस लक्षणों का वर्णन 892
बारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 918
त्रयोदश अध्याय
1-18 क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ (जीवात्मा), ज्ञान और ज्ञेय (परमात्मा) का भक्ति-सहित विवेचना 920
19-34 ज्ञानसहित प्रकृति-पुरुष का विवेचन 967
तेरहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 992
चतुर्दश अध्याय
1-4 ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत की उत्पत्ति 993
5-18 सत्त्व रज और तम इन तीनों गुणों का विवेचन 999
19-27 भगवत्प्राप्ति का उपाय एवं गुणातीत पुरुष के लक्षण 1028
चौदहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1044
पंचदश अध्याय
1-6 संसार का वृक्ष तथा उसका छेदन करके भगवान के शरण होने का और भगवद्धाम का वर्णन 1045
7-11 जीवात्मा का स्वरूप तथा उसे जानने वाले और न जानने वाले का वर्णन 1071
12-15 भगवान के प्रभाव का वर्णन 1096
16-20 क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम का वर्णन तथा अध्याय का उपसंहार 1110
पंद्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1122
षोडश अध्याय
1-5 फलसहित दैवी और आसुरी सम्पत्ति का वर्णन 1123
6-8 सत्कर्मों से विमुख हुए आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों की मान्याताओं का कथन 1164
9-16 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुराचारों और मनोरथों का फलसहित वर्णन 1173
17-20 आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्यों के दुर्भाव और दुर्गति का वर्णन 1187
21-24 आसुरी सम्पत्ति के मूलभूत दोष काम, क्रोध और लोभ से रहित होकर शास्त्र विधि के अनुसार कर्म करने की प्रेरणा 1197
सोलहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1204
सप्तदश अध्याय
1-6 तीन प्रकार की श्रद्धा का और आसुर निश्चय वाले मनुष्यों का वर्णन 1205
7-10 सात्त्विक, राजस और तामस आहारी की रुचि का वर्णन 1218
11-22 यज्ञ, तप और दान के तीन-तीन भेदों का वर्णन 1230
23-28 'ॐ तत्सत्' के प्रयोग की व्याख्या और असत्- कर्म का वर्णन 1254
सत्रहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1263
अष्टादश अध्याय
1-12 सन्यास के विषय में मतान्तर और कर्मयोग का वर्णन 1264
13-40 सांख्ययोग का वर्णन 1310
41-48 कर्मयोग का भक्तिसहित वर्णन 1364
49-55 सांख्ययोग का वर्णन 1408
56-66 भगवद्भभक्ति का वर्णन 1418
67-68 श्रीमद्भगवदद्गीता की महिमा 1490
अठारहवें अध्याय के पद, अक्षर, उवाच और प्रयुक्त छंद 1523
गीता का परिमाण और पूर्ण शरणागति 1524
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