श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इसलिए भगवान ने अर्जुन से कहा है कि जिस कर्म को तू मोहवश नहीं करना चाहता, उसको भी अपने स्वाभाविक कर्म से बँधा हुआ परवश होकर करेगा।[2] अब इसमें विचार करने की बात है कि एक ओर तो स्वभाव की महान प्रबलता है कि उसको कोई छोड़ ही नहीं सकता और दूसरी ओर मनुष्य-जन्म के उद्योग की महान प्रबलता है कि मनुष्य सब कुछ करने में स्वतंत्र है। अतः इन दोनों में किसकी विजय होगी और किसकी पराजय होगी? इसमें विजय-पराजय की बात नहीं है। अपनी-अपनी जगह दोनों ही प्रबल हैं। परंतु यहाँ स्वभाव की बात है। तात्पर्य है कि जीव जिस वर्ण में जन्मा है, जैसा रज-वीर्य था, उसके अनुसार बना हुआ जो स्वभाव है, उसको कोई बदल नहीं सकता; अतः वह स्वभाव दोषी नहीं है, निर्दोष है। जैसे, ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों का जो स्वभाव है, वह स्वभाव नहीं बदल सकता और उसको बदलने की आवश्यकता भी नहीं है तथा उसको बदलने के लिए शास्त्र भी नहीं कहता। परंतु उस स्वभाव में जो अशुद्ध-अंश (राग-द्वेष) है, उसको मिटाने की सामर्थ्य भगवान ने मनुष्य को दी है। अतः जिन दोषों से मनुष्य का स्वभाव अशुद्ध बना है, उन दोषों को मिटाकर मनुष्य स्वतंत्रतापूर्वक अपने स्वभाव को शुद्ध बना सकता है। मनुष्य चाहे तो कर्मयोग की दृष्टि से अपने प्रयत्न से राग-द्वेष को मिटाकर स्वभाव शुद्ध बना ले,[3] चाहे भक्तियोग की दृष्टि से सर्वथा भगवान के शरण होकर अपना स्वभाव शुद्ध बना ले।[4] इस प्रकार प्रकृति (स्वभाव) की प्रबलता भी सिद्ध हो गयी और मनुष्य की स्वतंत्रता भी सिद्ध हो गयी। तात्पर्य यह हुआ कि शुद्ध स्वभाव को रखने में प्रकृति की प्रबलता है और अशुद्ध स्वभाव को मिटाने में मनुष्य की स्वतंत्रता है। जैसे, लोहे की तलवार को पारस छुआ दिया जाए तो तलवार सोना बन जाती है; परंतु उसकी मार, धार और आकार- ये तीनों नहीं बदलते। इस प्रकार सोना बनाने में पारस की प्रधानता रही और ‘मार-धार-आकार’ में तलवार की प्रधानता रही। ऐसे ही जिन लोगों ने अपने स्वभाव को परम शुद्ध बना लिया है, उनके कर्म भी सर्वथा शुद्ध होते हैं। परंतु स्वभाव के शुद्ध होने पर भी वर्ण, आश्रम, संप्रदाय, साधन-पद्धति, मान्यता आदि के अनुसार आपस में उनके कर्मों की भिन्नता रहती है। जैसे, किसी ब्राह्मण को तत्त्वबोध हो जाने पर भी वह खान-पान आदि में पवित्रता रहेगा और अपने हाथ से बनाया हुआ भोजन ही ग्रहण करेगा; क्योंकि उसके स्वभाव में पवित्रता है। परंतु किसी हरिजन आदि साधारण वर्ण वाले को तत्त्वबोध हो जाए तो वह खान-पान आदि में पवित्रता नहीं रखेगा और दूसरों की जूठन भी खा लेगा; क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा पड़ा हुआ है। पर ऐसा स्वभाव उसके लिए दोषी नहीं होगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ व्याघ्रस्तुति कानने सुगहनां सिंहो गुहां सेवते हंसो वाञ्छति पद्मिनीं कुसुमितां गृध्रः श्मशाने स्थले।
साधुः सत्कृतिसाधुमेव भजते नीचोऽपि नीचं जनं या यस्य प्रकृतिः स्वभावजनिता केनापि न त्यज्यते ।।
‘व्याघ्र घने वन में संतुष्ट रहता है, सिंह गहन गुफा का सेवन करता है, हंस खिली हुई कमलिनी को चाहता है, गीध श्मशान भूमि में रहना पसंद करता है, सज्जन पुरुष अच्छे आचरणों वाले सज्जन पुरुषों में और नीच पुरुष नीच लोगों में ही रहना चाहते हैं। सच है, स्वभाव से पैदा हुई जिसकी जैसी प्रकृति है, उस प्रकृति को कोई नहीं छोड़ता।’ - ↑ गीता 18:60
- ↑ गीता 3:34
- ↑ गीता 18:62
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