श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
इसी प्रकार अदृष्ट के भी दो भेद होते हैं- लौकिक और पारलौकिक। जीते जी ही फल मिल जाए- इस भाव से यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, मंत्र-जप आदि शुभकर्मों को विधि-विधान से किया जाए और उसका कोई प्रबल प्रतिबंध न हो तो यहाँ ही पुत्र, धन, यश, प्रतिष्ठा आदि अनुकूलता की प्राप्ति होना और रोग, निर्धनता आदि प्रतिकूल की निवृत्ति होना- यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है[1] और मरने के बाद स्वर्ग आदि की प्राप्ति हो जाए- इस भाव से यथार्थ विधि-विधान और श्रद्धा-विश्वास पूर्वक जो यज्ञ, दान, तप, आदि शुभकर्म किए जाएँ तो मरने के बाद स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होना- यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है। ऐसे ही डाका डालने, चोरी करने, मनुष्य की हत्या करने आदि अशुभकर्मों का फल यहाँ ही कैद, जुर्माना, फाँसी आदि होना- यह अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल है और पापों के कारण मरने के बाद नरकों में जाना और पशु-पक्षी, कीट-पतंग आदि बनना- यह अदृष्ट का ‘पारलौकिक’ फल है। पाप-पुण्य के इस लौकिक और पारलौकिक फल के विषय में एक बात और समझने की है कि जिन पापकर्मों का फल यहीं कैद, जुर्माना, अपमान, निन्दा आदि के रूप में भोग लिया है, उन पापों का फल मरने के बाद भोगना नहीं पड़ेगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ दृष्ट का ‘कालान्तरिक’ फल और अदृष्ट का ‘लौकिक’ फल- दोनों फल एक समान ही दीखते हैं, फिर भी दोनों में अंतर है। जो ‘कालान्तरिक’ फल है, वह सीधे मिलता है, प्रारब्ध बनकर नहीं; परंतु जो ‘लौकिक’ फल है, वह प्रारब्ध बनकर ही मिलता है।
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