श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
न हि देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषत: ।
व्याख्या- ‘न हि देहभृता[1] शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः’- देहधारी अर्थात देह के साथ तादात्म्य रखने वाले मनुष्यों के द्वारा कर्मों का सर्वथा त्याग होना संभव नहीं है; क्योंकि शरीर प्रकृति का कार्य है और प्रकृति स्वतः क्रियाशील है। अतः शरीर के साथ तादात्म्य (एकता) रखने वाला क्रिया से रहित कैसे हो सकता है? हाँ, यह हो सकता है कि मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ आदि कर्मों को छोड़ दे; परंतु वह खाना-पीना, चलना-फिरना, आना जाना- उठना-बैठना, सोना-जागना आदि आवश्यक शारीरिक क्रियाओं को कैसे छोड़ सकता है? दूसरी बात, भीतर से कर्मों का संबंध छोड़ना ही वास्तव में छोड़ना है। बाहर से संबंध नहीं छोड़ा जा सकता है। यदि बाहर से संबंध छोड़ भी दिया जाए तो वह कब तक छूटा रहेगा? जैसे कोई समाधि लगा ले तो उस समय बाहर की क्रियाओं का संबंध छूट जाता है। परंतु समाधि भी एक क्रिया है, एक कर्म है; क्योंकि इसमें प्रकृतिजन्य कारण-शरीर का संबंध रहता है। इसलिए समाधि से भी व्युत्थान होता है। कोई भी देहधारी मनुष्य कर्मों का स्वरूप से संबंध-विच्छेद नहीं कर सकता।[2] कर्मों का आरंभ किए बिना निष्कर्मता (योगनिष्ठा) प्राप्त नहीं होती और कर्मों का त्याग करने मात्र से सिद्धि (सांख्यनिष्ठा) भी प्राप्त नहीं होती।[3] पुरुष (चेतन) सदा निर्विकार और एकरस रहने वाला है; परंतु प्रकृति विकारी और सदा परिवर्तनशील है। जिसमें अच्छी रीति से क्रियाशीलता हो, उसको ‘प्रकृति’ कहते हैं- ‘प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।’ उस प्रकृति के कार्य शरीर के साथ जब तक पुरुष अपना संबंध (तादात्म्य) मानता रहेगा, तब तक वह कर्मों का सर्वथा त्याग कर ही नहीं सकता। कारण कि शरीर में अहंता-ममता होने के कारण मनुष्य शरीर से होने वाली प्रत्येक क्रिया को अपनी क्रिया मानता है, इसलिए ये वह कभी किसी अवस्था में भी क्रियारहित नहीं हो सकता। दूसरी बात, केवल पुरुष ने ही प्रकृति के साथ अपना संबंध जोड़ा है। प्रकृति ने पुरुष के साथ संबंध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है, वहाँ पुरुष ने विवेक की उपेक्षा करके प्रकृति से संबंध नहीं जोड़ा है। जहाँ विवेक रहता है, वहाँ पुरुष ने विवेक की उपेक्षा करके प्रकृति से संबंध की सद्भावना कर ली अर्थात संबंध को सत्य मान लिया। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘देहभृता’ पद को देहाभिमानी अर्थात देह के साथ तादात्म्य मानने वाले सामान्य पुरुषों का ही वाचक समझना चाहिए। गुणातीत महापुरुष की देह से भी क्रियाएँ होती रहती हैं; परंतु देह के साथ तादात्म्य न रहने से उसका उन क्रियाओं से कोई संबंध नहीं होता अर्थात वह उन क्रियाओं का कर्ता नहीं बनता।
- ↑ गीता 3:5
- ↑ गीता 3:4
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