श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
अष्टादश अध्याय
न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म कुशले नानुषज्जते ।
व्याख्या- ‘न द्वेष्ट्यकुशलं कर्म’- जो शास्त्रविहित शुभ-कर्म फल की कामना से किए जाते हैं और परिणाम में जिनसे पुनर्जन्म होता है[1] तथा जो शास्त्रनिषिद्ध पाप-कर्म हैं और परिणाम में जिनसे नीच योनियों तथा नरकों में जाना पड़ता है[2] वे सब के सब कर्म ‘अकुशल’ कहलाते हैं। साधक ऐसे अकुशल कर्मों का त्याग तो करता है, पर द्वेषपूर्वक नहीं। कारण कि द्वेषपूर्वक त्याग करने से कर्मों से तो संबंध छूट जाता है, पर द्वेष के साथ संबंध जुड़ जाता है, जो शास्त्रविहित काव्य-कर्मों से तथा शास्त्र निषिद्ध पाप-कर्मों से भी भयंकर है। ‘कुशले नानुषज्जते’- शास्त्रविहित कर्मों में भी जो वर्ण, आश्रम, परिस्थिति आदि के अनुसार नियत हैं और जो आसक्ति तथा फलेच्छा का त्याग करके किए जाते हैं तथा परिणाम में जिनसे मुक्ति होती है, ऐसे सभी कर्म ‘कुशल’ कहलाते हैं। साधक ऐसे कुशल कर्मों को करते हुए भी उनमें आसक्त नहीं होता। ‘त्यागी’- कुशल कर्मों के करने में जिसका राग नहीं होता और अकुशल कर्मों के त्याग में जिसका द्वेष नहीं होता, वही असली त्यागी है।[3] परंतु वह त्याग पूर्णतया तब सिद्ध होता है, जब कर्मों को करने अथवा न करने से अपने में कोई फर्क न पड़े अर्थात निरंतर निर्लिप्तता बनी रहे।[4] ऐसा होने पर साधक योगारूढ़ हो जाता है।[5] ‘मेधावी’- जिसके संपूर्ण कार्य सांगोपांग होते हैं और संकल्प तथा कामना से रहित होते हैं तथा ज्ञानरूप अग्नि से जिसने संपूर्ण कर्मों को भस्म कर दिया है, उसे पंडित भी पंडित (मेधावी अथवा बुद्धिमान) कहते हैं।[6] कारण कि कर्मों को करते हुए भी कर्मों से लिपायमान न होना बड़ी बुद्धिमत्ता है। इसी मेधावी को चौथे अध्याय के अठारहवें श्लोक में ‘स बुद्धिमान्मनुष्येषु’ पदों से संपूर्ण मनुष्यों में बुद्धिमान बताया गया है। ‘छिन्नसंशयः’- उस त्यागी पुरुष में कोई संदेह नहीं रहता। तत्त्व में अभिन्नभाव से स्थित रहने के कारण उसमें किसी तरह का संदेह रहने की संभावना ही नहीं रहती। संदेह तो वहीं रहता है, जहाँ अधूरा ज्ञान होता है अर्थात कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते। ‘सत्त्वसमाविष्टः’- आसक्ति आदि का त्याग होने से उसकी अपने स्वरूप में, चिन्मयता में स्वतः स्थिति हो जाती है। इसलिए उसे ‘सत्त्वसमाविष्टः’ कहा गया है। इसी को पाँचवें अध्याय के उन्नीसवें श्लोक में ‘तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः’ पदों से परमात्मा में स्थित बताया गया है। संबंध- कर्मों को करने में राग न हो और छोड़ने में द्वेष न हो- इतनी झंझट क्यों की जाए? कर्मों का सर्वथा ही त्याग क्यों न कर दिया जाए? –इस शंका को दूर करने के लिए आगे का श्लोक कहते हैं।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ गीता 2।42-44; 9।20-21
- ↑ गीता 16।7-20
- ↑ दोषबुद्ध्योभयातीतो निषेधात्र निवर्तते। गुणबुद्धय्या च विहितं न करोति यथार्भकः ।। (श्रीमद्भ. 11।7।11)
‘जो पुरुष अनुकूलता-प्रतिकूलता रूप द्वंद्वों से ऊँचा उठ जाता है, वह शास्त्रनिषिद्ध कर्मों का त्याग करता है, पर द्वेषबुद्धि से नहीं और शास्त्रविहित कर्मों को करता है, पर गुणबुद्धि से अर्थात रागपूर्वक नहीं। जैसे घुटनों के बल पर चलने वाले बच्चे की निवृत्ति और प्रवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक नहीं होती, वैसे ही उभयातीत पुरुष की निवृत्ति और प्रवृत्ति भी राग-द्वेषपूर्वक नहीं होती (बच्चे में तो अज्ञता रहती है, पर राग-द्वेष से रहित पुरुष में विज्ञता रहती है)।’ - ↑ गीता 3:18; गीता 4:18
- ↑ गीता 6:4
- ↑ गीता 4:19
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