श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
व्याख्या- ‘अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्’- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ, दान और तप किया जाए और ‘कृतं च यत्’[1] अर्थात जिसकी शास्त्र में आज्ञा आती है, ऐसा जो कुछ कर्म अश्रद्धापूर्वक किया जाए- वह सब ‘असत्’ कहा जाता है। ‘अश्रद्धया’ पद में श्रद्धा के अभाव का वाचक ‘नञ्’ समास है, जिसका तात्पर्य है कि आसुर लोग परलोक पुनर्जन्म, धर्म, ईश्वर आदि में श्रद्धा नहीं रखते। बरन धर्म नहिं आश्रम चारी। -इस प्रकार के विरुद्ध भाव रखकर वे यज्ञ, दान आदि क्रियाएँ करते हैं। जब वे शास्त्र में श्रद्धा ही नहीं रखते, तो फिर वे यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म क्यों करते हैं? वे उन शास्त्रीय कर्मों को इसलिए करते हैं कि लोगों में उन क्रियाओं का ज्यादा प्रचलन है, उनको करने वालों का लोग आदर करते हैं तथा उनको करना अच्छा समझते हैं। इसलिए समाज में अच्छा बनने के लिए और जो लोग यज्ञ आदि शास्त्रीय कर्म करते है, उनकी श्रेणी में गिने जाने के लिए वे श्रद्धा न होने पर भी शास्त्रीय कर्म कर देते हैं। ‘असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह’- अश्रद्धापूर्वक यज्ञ आदि जो कुछ शास्त्रीय कर्म किया जाए, वह सब ‘असत्’ कहा जाता है। उसका न इस लोक में फल होता है और न परलोक में- जन्म जन्मान्तर में ही फल होता है। तात्पर्य यह है कि सकामभाव से श्रद्धा एवं विधिपूर्वक शास्त्रीय कर्मों को करने पर यहाँ धन-वैभव, स्त्री-पुत्र आदि की प्राप्ति और मरने के बाद स्वर्गादि लोकों की प्राप्ति हो सकती है और उन्हीं कर्मों को निष्कामभाव से श्रद्धा एवं विधिपूर्वक करने पर अंतःकरण की शुद्धि होकर परमात्मप्राप्ति हो जाती है; परंतु अश्रद्धापूर्वक कर्म करने वालो को इनमें से कोई भी फल प्राप्त नहीं होता। यदि यहाँ यह कहा जाए कि अश्रद्धापूर्वक जो कुछ भी किया जाता है, उसका इस लोक में और परलोक में कुछ भी फल नहीं होता, तो जितने पाप-कर्म किए जाते हैं, वे सभी अश्रद्धा से ही किए जाते हैं, तब तो उनका भी कोई फल नहीं होना चाहिए। और मनुष्य भोग भोगने तथा संग्रह करने की इच्छा को लेकर अन्याय, अत्याचार, झूठ, कपट, धोखेबाजी आजि जितने भी पाप-कर्म करता है, उन कर्मों का फल दंड भी नही चाहता। पर वास्तव में ऐसी बात है नहीं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यहाँ ‘सहचरितासहचरितयोर्मध्ये सहचरितस्यैव ग्रहणम्’- व्याकरण के इस न्याय के अनुसार यज्ञ, दान और तपके साहचर्य से ‘कृतम्’ पद से शास्त्रीय कर्म ही लिए जाएँगे।
- ↑ मानस 7।98।1
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