श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
कारण कि कर्मों का यह नियम है कि रागी पुरुष रागपूर्वक जो कुछ भी कर्म करता है, उसका फल कर्ता के न चाहने पर भी कर्ता को मिलता ही है। इसलिए आसुरी संपदा वालों को बंधन और आसुरी योनियों तथा नरकों की प्राप्ति होती है। छोटे से छोटा और साधारण से साधारण कर्म भी यदि उस परमात्मा के उद्देश्य से ही निष्कामभाव पूर्वक किया जाए, तो वह कर्म ‘सत्’ हो जाता है अर्थात परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला हो जाता है; परंतु बड़े से बड़ा यज्ञादि कर्म भी यदि श्रद्धापूर्वक और शास्त्रीय विधि-विधान से सकामभाव पूर्वक किया जाए, तो वह कर्म भी फल देकर नष्ट हो जाता है; परमात्मा की प्राप्ति कराने वाला नहीं होता तथा वे यज्ञादि कर्म यदि अश्रद्धापूर्वक किए जाएँ, तो वे सब असत् हो जाते हैं अर्थात ‘सत्’ फल देने वाले नहीं होते। तात्पर्य यह है कि परमात्मा की प्राप्ति में क्रिया की प्रधानता नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-भाव की ही प्रधानता है। पूर्वोक्त सद्भाव, साधुभाव, प्रशस्त कर्म, सत्-स्थिति और तदर्थीय कर्म- ये पाँचों परमात्मा की प्राप्ति कराने वाले होने से अर्थात- ‘सत्’- परमात्मा के साथ संबंध जोड़ने वाले होने से ‘सत्’ कहे जाते हैं। अश्रद्धा से किए गए कर्म ‘असत्’ क्यों होते हैं? वेदों ने, भगवान ने और शास्त्रों ने कृपा करके मनुष्यों के कल्याण के लिए ही ये शुभकर्म बताये हैं, पर जो मनुष्य इन तीनों पर अश्रद्धा करके शुभकर्म करते हैं, उनके ये सब कर्म ‘असत्’ हो जाते हैं। इन तीनों पर की हुई अश्रद्धा के कारण उनको नरक आदि दण्ड मिलने चाहिए; परंतु उनके कर्म शुभ (अच्छे) हैं, इसलिए उन कर्मों का कोई फल नहीं होता- यही उनके लिए दंड है। मनुष्य को उचित है कि वह यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत आदि शास्त्रविहित कर्मों को श्रद्धापूर्वक और निष्कामभाव से करे। भगवान ने विशेष कृपा करके मानव-शरीर दिया है और इसमें शुभकर्म करने से अपने को और सब लोगों को लाभ होता है। इसलिए जिससे अभी और परिणाम में सबका हित हो- ऐसे श्रेष्ठ कर्तव्य कर्म श्रद्धापूर्वक और भगवान की प्रसन्नता के लिए करते रहना चाहिए। |
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