|
श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
भगवान के भक्त (भगवान का उद्देश्य रखकर) ‘तत्’ पद के बोधक राम, कृष्ण, गोविन्द, नारायण, वासुदेव, शिव आदि नामों का उच्चारण करके सब क्रियाएँ आरंभ करते हैं।
अपना कल्याण चाहने वाले मनुष्य यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, व्रत, जप, स्वाध्याय, ध्यान, समाधि आदि जो भी क्रियाएँ करते हैं, वे सब भगवान के लिए; भगवान की प्रसन्नता के लिए, भगवान की आज्ञा पालन के लिए ही करते हैं, अपने लिए नहीं। कारण कि जिनसे क्रियाएँ की जाती हैं, वे शरीर, इंद्रियाँ, अंतःकरण आदि सभी परमात्मा के ही हैं, हमारे नहीं है। जब शरीर आदि हमारे नहीं हैं, तो घर, जमीन जायदाद, रुपए-पैसे, कुटुम्ब आदि भी हमारे नहीं है। ये सभी प्रभु के हैं और इनमें जो सामर्थ्य, समझ आदि है, वह भी सब प्रभु की है और हम खुद भी प्रभु के ही हैं। हम प्रभु के हैं और प्रभु हमारे हैं- इस भाव से वे सब क्रियाएँ प्रभु की प्रसन्नता के लिए ही करते हैं।
संबंध- चौबीसवें श्लोक में ‘ऊँ’ की और पच्चीसवें श्लोक में ‘तत्’ शब्द की व्याख्या करके अब भगवान आगे के दो श्लोकों में पाँच प्रकार से ‘सत्’ शब्द की व्याख्या करते हैं।
|
|