श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते’- अग्नि में आहुति देने के विषय में तामस मनुष्यों का यह भाव रहता है कि अन्न, घी, जौ, चावल, नारियल, छुहारा आदि तो मनुष्य के निर्वाह के काम की चीजें हैं। ऐसी चीजों को अग्नि में फूँक देना कितनी मूर्खता है![1] अपनी प्रसिद्धि, मान-बड़ाई के लिए वे यज्ञ करते भी हैं तो बिना शास्त्रविधि के, बिना अन्नदान के, बिना मंत्रों के और बिना दक्षिणा के करते हैं। उनकी शास्त्रों पर, शास्त्रोक्त विधिपूर्वक की गई यज्ञ की क्रिया- पर और उसके पारलौकिक फल पर भी श्रद्धा-विश्वास नहीं होते। कारण कि उनमें मूढ़ता होती है। उनमें अपनी तो अक्ल होती नहीं और दूसरा कोई समझा दे तो उसे मानते नहीं। इस तामस यज्ञ में ‘यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः’ [2] और ‘अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्’ [3]- ये दोनों भाव होते हैं। अतः वे इहलोक और परलोक का जो फल चाहते हैं, वह उनको नहीं मिलता- ‘न स सिद्धिमवाप्नोतिन सुखं न परां गतिम्’, ‘न च तत्प्रेत्य नो इह।’ तात्पर्य है कि उनको उपेक्षापूर्वक किए गए शुभ कर्मों का इच्छित फल तो नहीं मिलेगा, पर अशुभ-कर्मों का फल (अधोगति) तो मिलेगा ही- ‘अधो गच्छन्ति तामसाः’।[4] कारण कि अशुभ फल में अश्रद्धा ही हेतु हैं और वे अश्रद्धापूर्वक ही शास्त्रविरुद्ध आचरण करते हैं; अतः इसका दंड तो उनको मिलेगा ही। इन यज्ञों में कर्ता, ज्ञान, क्रिया, धृति, बुद्धि, संग, शास्त्र, खान-पान आदि यदि सात्त्विक होंगे, तो वह यज्ञ सात्त्विक हो जाएगा; यदि राजस होंगे, तो वह यज्ञ राजस हो जाएगा; और यदि तामस होंगे, तो वह यज्ञ तामस हो जाएगा। संबंध- ग्याहरवें, बारहवें और तेरहवें श्लोक में क्रमशः सात्त्विक, राजस और तासम यज्ञ का वर्णन करके अब आगे के तीन श्लोकों में क्रमशः शारीरिक, वाचिक और मानसिक तप का वर्णन करते हैं (जिसका सात्त्विक, राजस और तामस भेद आगे करेंगे)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जब खेत में हल चलाने वाला अनाज के बढ़िया-बढ़िया बीजों को मिट्टी में मिला देता है, तो खेती होने पर उन बीजों से कई गुणा अधिक अनाज पैदा हो जाता है; फिर शास्त्रीय मंत्रों के उच्चारणपूर्वक वस्तुओं का हवन करना क्या निरर्थक जाएगा? मिट्टी में मिलाया हुआ बीज तो आधिभौतिक है; क्योंकि पृथ्वी जड़ है, पर शास्त्रविधिसहित अग्नि में दी गई आहुति आधिदैविक है; क्योंकि देवता चेतन है। अतः उन देवताओं के लिए दी गई आहुति वर्षा के रूप में बहुत बड़ा काम करती है। मनु जी ने कहा है-
- अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
- आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नंततः प्रजा।। (मनुस्मृति 3।76)
अर्थात अग्नि में डाली गई आहुति आदित्य की किरणों को पुष्ट करती है और उन पुष्ट हुई किरणों से वर्षा होती है (इस बात को भौतिक वैज्ञानिक भी मानने लगे हैं।) मात्र जीव अन्न से पैदा होते हैं और अन्न जल से पैदा होता है- ‘अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभवः।’ (गीता 3:14) अतः सृष्टि में जल ही प्रधान है। जल बरसने में ‘यज्ञ’ ही खास हेतु है- ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्यः’। (गीता 3:14)
- अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते।
- ↑ गीता 16:23
- ↑ गीता 17:28
- ↑ गीता 14:18
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