श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘विधिहीनम्’- अलग-अलग यज्ञों की अलग-अलग विधियाँ होती हैं और उसके अनुसार यज्ञकुण्ड, स्रुवा आदि पात्र, बैठने की दिशा, आसन आदि का विचार होता है। अलग-अलग देवताओं की अलग-अलग सामग्री होती है; जैसे- देवी के यज्ञ में लाल वस्त्र और लाल सामग्री होती है। परंतु तामस यज्ञों में इन विधियों का पालन नहीं होता, प्रत्युत उपेक्षापूर्वक विधि का त्याग होता है। ‘अस्रष्टान्नम्’- तामस मनुष्य जो द्रव्ययज्ञ करते हैं, उसमें ब्राह्मणादि को अन्न-दान नहीं किया जाता है। तामस मनुष्यों का यह भाव रहता है कि मुफ्त में रोटी मिलने से वे आलसी हो जाएंगे, काम-धंधा नहीं करेंगे। ‘मंत्रहीनम्’- वेदों में वेदानुकूल शास्त्रों में कहे हुए मंत्रों से ही द्रव्ययज्ञ किया जाता है। परंतु तामस यज्ञ में वैदिक तथा शास्त्रीय मंत्रों से यज्ञ नहीं किया जाता। कारण कि तामस पुरुषों का यह भाव रहता है कि आहुति देने मात्र से यज्ञ हो जाता है, सुगंध हो जाती है, गंदे परमाणु नष्ट हो जाते हैं, फिर मंत्रों की क्या जरूरत है? आदि। ‘अदक्षिणम्’- तामस यज्ञ में दान नहीं किया जाता। कारण कि तामस पुरुषों का यह भाव रहता है कि हमने यज्ञ में आहुति दे दी और ब्राह्मणों को अच्छी तरह से भोजन करा दिया, अब उनको दक्षिणा देने की क्या जरूरत रही? यदि हम उनको दक्षिणा देंगे तो वे आलसी-प्रमादी हो जाएंगे, पुरुषार्थहीन हो जाएंगे, जिससे दुनिया में बेकारी फैलेगी; दूसरी बात, जिन ब्राह्मणों को दक्षिणा मिलती है, वे कुछ कमाते ही नहीं, इसलिए वे पृथ्वी पर भार रूप रहते हैं, इत्यादि। वे तामस मनुष्य यह नहीं सोचते कि ब्राह्मणादि को अन्नदान, दक्षिणा आदि न देने से वे तो प्रमादी बनें, चाहे न बनें; पर शास्त्रविधि का, अपने कर्तव्य-कर्म का त्याग करने से हम तो प्रमादी बन ही गये। |
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