श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
3. यदि भगवान को यहाँ आहार का ही वर्णन करना होता, तो वे आहार की विधि का और उसके लिए कर्मों की शुद्धि-अशुद्धि का वर्णन करते; जैसे- शुद्ध कमाई के पैसों से अनाज आदि पवित्र खाद्य पदार्थ खरीदे जाएँ; रसोई में चौका देकर और स्वच्छ वस्त्र पहनकर पवित्रतापूर्वक भोजन बनाया जाए; भोजन को भगवान के अर्पण किया जाए और भगवान का चिन्तन तथा उनके नाम का जप करते हुए प्रसाद-बुद्धि से भोजन ग्रहण किया जाए- ऐसा भोजन सात्त्विक होता है। स्वार्थ और अभिमान की मुख्यता को लेकर सत्य-असत्य का कोई विचार न करते हुए पैसे कमाए जाएँ; स्वाद, शरीर की पुष्टि, भोग भोगने की सामर्थ्य बढ़ाने आदि का उद्देश्य रखकर भोजन के पदार्थ खरीदे जाएं; जिह्वा को स्वादिष्ट लगें और दीखने में भी सुंदर दीखें- इस दृष्टि से, रीति से उनको बनाया जाए; और आसक्तिपूर्वक खाया जाए- ऐसा भोजन राजस होता है। झूठ-कपट, चोरी, डकैती, धोखेबाजी आदि किसी तरह से पैसे कमाए जाएँ; अशुद्धि-शुद्धि का कुछ विचार न करके मांस, अंडे आदि पदार्थ खरीदे जाएँ; विधि-विधान का कोई खयाल न करके भोजन बनाया जाए और बिना हाथ पैर धोए एवं चप्पल-जूति पहनकर ही अशुद्ध वायुमंडल में उसे खाया- ऐसा भोजन तामस होता है। परंतु भगवान ने यहाँ केवल सात्त्विक, राजस और तामस पुरुषों के प्रिय लगने वाला खाद्य पदार्थों का वर्णन किया है, जिससे उनकी रुचि की पहचान हो जाए। 4. इसके सिवाय गीता में जहाँ-जहाँ आहार की बात आयी है, वहाँ आहार की बात आयी है, वहाँ-वहाँ आहारी का ही वर्णन हुआ है; जैसे- ‘नात्यश्रतस्तु’ और ‘युक्ताहारविहारस्य’[1] पदों में अधिक खाने वाले और नियत खाने वालों का; ‘यदश्नासि’[2] पद में भोजन के पदार्थ को भगवान के अर्पण करने वाला का, और ‘लघ्वाशी’[3] पद में अल्प भोजन करने वालों का वर्णन हुआ है। इसी प्रकार इस अध्याय के सातवें श्लोक में ‘यज्ञस्तपस्तथा दानम्’ पदों में आया ‘तथा’ (वैसे ही) पद यह कह रहा है कि जो मनुष्य यज्ञ, तप, दान आदि कार्य करते हैं, वे भी अपनी-अपनी (सात्त्विक, राजस अथवा तामस) रुचि के अनुसार ही कार्य करतरे हैं। आगे ग्यारहवें से बाईसवें श्लोक तक का जो प्रकरण है, उसमें भी यज्ञ, तप और दान करने वालों के स्वभाव का ही वर्णन हुआ है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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