श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
उपनिषदों में आता है कि जैसा अन्न होता है, वैसा ही मन बनता है- ‘अन्नमयं हि सोम्य मनः।’[1] अर्थात अन्न का असर मन पर पड़ता है। अन्न के सूक्ष्म सारभाग से मन (अंतःकरण) बनता है, दूसरे नंबर के भाग से वीर्य, तीसरे नंबर के भाग से रक्त आदि और चौथे नंबर के स्थूल भाग से मल बनता है, जो कि बाहर निकल जाता है। अतः मन को शुद्ध बनाने के लिए भोजन शुद्ध, पवित्र होना चाहिए। भोजन की शुद्धि से मन- (अंतःकरण) की शुद्धि होती है- ‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः’।[2] जहाँ भोजन करते हैं, वहाँ का स्थान, वायुमंडल, दृश्य तथा जिस पर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध, पवित्र होना चाहिए। कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीर के सभी रोमकूपों से आसपास के परमाणुओं को भी खींचते- ग्रहण करते हैं। अतः वहाँ का स्थान, वायुमंडल आदि जैसे होंगे, प्राण वैसे ही परमाणु खींचेगा और उन्हीं के अनुसार मन बनेगा। भोजन बनाने वाले के भाव, विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों। भोजन के पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख- ये पाँचों शुद्ध, पवित्र जल से धो ले। फिर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके शुद्ध आसन पर बैठकर भोजन की सब चीजों को ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्रामि प्रयतात्मनः ।।’[3]- यह श्लोक पढ़कर भगवान के अर्पण कर दे। अर्पण के बाद दायें हाथ में जल लेकर ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्रौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना ।।’[4]- यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजन का पहला ग्रास भगवान का नाम लेकर ही मुख में डाले। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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