श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
‘प्रियः’ शब्द केवल सातवें श्लोक में ही नहीं आया है, प्रत्युत आठवें श्लोक में ‘सात्त्विकप्रियाः’ नवें श्लोक में ‘राजसस्येष्टाः’ और दसें श्लोक में ‘तामसप्रियम्’ में भी ‘प्रिय’ और ‘इष्ट’ शब्द आये हैं, जो रुचि के वाचक हैं। यदि यहाँ आहार का ही वर्णन होता तो भगवान प्रिय है, ये राजस आहार हैं, ये तामस आहार हैं- ऐसे पदों का प्रयोग करते हैं। 2. दूसरी प्रबल युक्ति यह है कि सात्त्विक आहार में पहले ‘आयुः सत्त्वबलारोग्यसुखप्रीतिविवर्धनाः’ पदों से भोजन का फल बताकर बाद में भोजन में पदार्थों का वर्णन किया। कारण कि सात्त्विक मनुष्य भोजन करने आदि किसी भी कार्य में विचारपूर्वक प्रवृत्त होता है, तो उसकी दृष्टि सबसे पहले उसके परिणाम पर जाती है। रागी होने से राजस मनुष्य की दृष्टि सबसे पहले भोजन पर ही जाती है, इसलिए राजस आहार के वर्णन में पहले भोजन के पदार्थों का वर्णन करके बाद में ‘दुःखशोकामयप्रदाः’ पद से उसका फल बताया है। तात्पर्य यह कि राजस मनुष्य अगर आरंभ में ही भोजन के परिणाम पर विचार करेगा, तो फिर उसे राजस भोजन करने में हिचकिचाहट होगी; क्योंकि परिणाम में मुझे दु:ख, शोक और रोग हो जायँ- ऐसा कोई मनुष्य नहीं चाहता। परंतु राग होने के कारण राजस पुरुष परिणाम पर विचार करता ही नहीं। सात्त्विक भोजन का फल पहले और राजस भोजन का फल पीछे बताया ही नहीं गया। कारण कि मूढ़ता होने के कारण तामस मनुष्य भोजन और उसके परिणाम पर विचार करता ही नहीं। भोजन न्याययुक्त है या नहीं, उसमें हमारा अधिकार है या नहीं, शास्त्रों की आज्ञा है या नहीं और परिणाम में हमारे मन-बुद्धि के बल को बढ़ाने में हेतु है या नहीं- इन बातों को कुछ भी विचार न करके तामस मनुष्य पशु की तरह खाने में प्रवृत्त होते हैं। तात्पर्य है कि सात्त्विक भोजन करने वाला तो दैवी संपत्ति वाला होता है और राजस तथा तामस भोजन करने वाला आसुरी-संपत्ति वाला होता है। |
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