श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
पहचान यह है कि ऐसे मनुष्यों के भीतर स्वाभाविक यह भाव होता है कि ऐसी कोई महान् चीज (परमात्मा) है, जो दीखती तो नहीं, पर है अवश्य। ऐसे मनुष्यों को स्वाभाविक ही पारमार्थिक बातें बहुत प्रिय लगती हैं और वे स्वाभाविक ही यज्ञ, दान, तप, तीर्थ, वत, सत्संग, स्वाध्याय आदि शुभ कर्मों में प्रवृत्त होते हैं। यदि वे ऐसे कर्म न भी करें, तो भी सात्त्विक आहार में स्वाभाविक रुचि होने से उनकी श्रद्धा की पहचान हो जाती है। मनुष्य, पशु-पक्षी, लता-वृक्ष आदि जितने भी स्थावर जंगम प्राणी हैं, वे किसी न किसी को (किसी न किसी अंश में) अपने से बड़ा अवश्य मानते हैं और बड़ा मानकर उसका सहारा लेते हैं। मनुष्य पर जब आफत आती है, तब वह किसी को अपने से बड़ा मानकर उसका सहारा लेता है। पशु-पक्षी भी अपनी रक्षा चाहते हैं और भयभीत होने पर किसी का सहारा लेते हैं। लता भी किसी का सहारा लेकर ही ऊँची चढ़ती है। इस प्रकार जिसने किसी को बड़ा मानकर उसका सहारा लिया, उसने वास्तव में ‘ईश्वरवाद’ के सिद्धांत को स्वीकार कर ही लिया, चाहे वह ईश्वर को माने या न माने। इसलिए आयु, विद्या, गुण, बुद्धि, योग्यता, सामर्थ्य, पद, अधिकार, ऐश्वर्य आदि में एक-एक से बड़ा देखे, तो बड़प्पन देखते-देखते अंत में बड़प्पन की जहाँ समाप्ति हो, वहीं ईश्वर है; क्योंकि बड़े से बड़ा ईश्वर है। उससे बड़ा कोई है ही नहीं। ‘वह परमात्मा सबके पूर्वजों का भी गुरु है; क्योंकि उसका काल से अवच्छेद नहीं है अर्थात वह काल की सीमा से बाहर है। ’इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपनी दृष्टि से किसी न किसी को बड़ा मानता है। बड़प्पन की यह मान्यता अपने-अपने अंतःकरण के भावों के अनुसार अलग-अलग होती है। इस कारण उनकी श्रद्धा भी अलग-अलग होती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सांसारिक श्रद्धा में ‘भोग’ की, धार्मिक श्रद्धा में ‘भाव’ की और पारमार्थिक श्रद्धा में ‘तत्त्व’ की प्रधानता है।
- ↑ योगदर्शन 1।26
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