श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
जो मनुष्य अपना कल्याण चाहता है, उसकी श्रद्धा सात्त्विकी होती है, जो मनुष्य इस जन्म में तथा मरने के बाद भी सुख-संपत्ति (स्वर्गादि) को चाहता है, उसकी श्रद्धा राजसी होती है और जो मनुष्य पशुओं की तरह (मूढ़ता- पूर्वक) केवल खाने-पीने, भोग भोगने तथा प्रमदा, आलस्य, निद्रा, खेल-कूद, तमाशे आदि में लगा रहता है, उसकी श्रद्धा तामसी होती है। सात्त्विकी श्रद्धा के लिए सबसे पहली बात है कि ‘परमात्मा है।’ शास्त्रों से, संत-महात्माओं से, गुरुजनों से सुनकर पूज्यभाव के सहित ऐसा विश्वास हो जाए कि ‘परमात्मा है और उसको प्राप्त करना है’- इसका नाम श्रद्धा है। ठीक श्रद्धा जहाँ होती है, वहाँ प्रेम स्वतः हो जाता है। कारण कि जिस परमात्मा में श्रद्धा होती है, उसी परमात्मा का अंश यह जीवात्मा है। अतः श्रद्धा होते ही यह परमात्मा की तरफ की तरफ खिंचता है। अभी यह परमात्मा से विमुख होकर जो संसार में लगा हुआ है, वह भी संसार में श्रद्धा-विश्वास होने से ही है। पर यह वास्तविक श्रद्धा नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा का दुरुपयोग है। जैसे, संसार में यह रुपयों पर विशेष श्रद्धा करता है कि इनमें सब कुछ मिल जाता है। यह श्रद्धा कैसे हुई? कारण कि बचपन में खाने और खलने के पदार्थ पैसों से मिलते थे। ऐसा देखते-देखते पैसों को ही मुख्य मान लिया और उसी में श्रद्धा कर ली, जिससे यह बहुत ही पतन की तरफ चला गया है। यह सांसारिक श्रद्धा हुई। |
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