श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
श्रद्धा अंतःकरण के अनुरूप ही होती है। धारणा, मान्यता, भावना आदि सभी अंतःकरण में रहते हैं। इसलिए अंतःकरण में सात्त्विक, राजस या तामस जिस गुण की प्रधानता रहती है, उसी गुण के अनुसार धारणा, मान्यता आदि बनती है और उस धारणा, मान्यता आदि के अनुसार ही तीन प्रकार की (सात्त्विकी, राजसी या तामसी) श्रद्धा बनती है। सात्त्विक, राजस और तामस- तीनों गुण सभी प्राणियों में रहते हैं।[1] उन प्राणियों में किसी में सत्त्वगुण की प्रधानता होती है, किसी में रजोगुण की प्रधानता होती है और किसी में तमोगुण की प्रधानता होती है। अतः यह नियम नहीं है कि सत्त्वगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में रजोगुण और तमोगुण न आएं, रजोगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में सत्त्वगुण और तमोगुण न आएं, तथा तमोगुण की प्रधानता वाले मनुष्य में सत्त्वगुण और रजोगुण न आएं।[2] कारण कि प्रकृति परिवर्तनशील है- ‘प्रकर्षेण करणं (भावे ल्युट्) इति प्रकृतिः।’ जीवमात्र परमात्मा का अंश है। इसलिए किसी मनुष्य में रजोगुण-तमोगुण की प्रधानता देखकर उसे नीचा नहीं मान लेना चाहिए; क्योंकि कौन सा मनुष्य किस समय समुन्नत हो जाए- इसका कुछ पता नहीं है। कारण कि परमात्मा का अंश- स्वरूप (आत्मा) तो सबका शुद्ध ही है, केवल संग, शास्त्र, विचार, वायुमंडल आदि को लेकर अंतःकरण में किसी एक गुण की प्रधानता हो जाती है अर्थात जैसा संग, शास्त्र आदि मिलता है, वैसा ही मनुष्य का अंतःकरण बन जाता है और उस अंतःकरण के अनुसार ही उसकी सात्त्विकी, राजसी या तामसी श्रद्धा बन जाती है। इसलिए मनुष्य को सदा-सर्वदा सात्त्विक संग, शास्त्र, विचार, वायुमंडल आदि का ही सेवन करते रहना चाहिए। ऐसा करने से उसका अंतःकरण तथा उसके अनुसार उसकी श्रद्धा भी सात्त्विकी बन जाएगी, जो उसका उद्धार करने वाली होगी। इसके विपरीत मनुष्य को राजस-तामस संग, शास्त्र आदि का सेवन कभी भी नहीं करना चाहिए; क्योंकि इससे उसकी श्रद्धा भी राजसी-तामसी बन जाएगी, जो उसका पतन करने वाली होगी। संबंध- अपने इष्ट के यजन-पूजन द्वारा मनुष्यों की निष्ठा की पहचान किस प्रकार होती है, अब उसको बताते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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