श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
सप्तदश अध्याय
व्याख्या- ‘सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत’- पीछे के श्लोक में जिसे ‘स्वभावजा’ कहा गया है, उसी को यहाँ ‘सत्त्वानुरूपा’ कहा है। ‘सत्त्व’ नाम अंतःकरण का है। अंतःकरण के अनुरूप श्रद्धा होती है अर्थात अंतःकरण जैसा होता है, उसमें सात्त्विक, राजस या तामस जैसे संस्कार होते हैं, वैसी ही श्रद्धा होती है। दूसरे श्लोक में जिनको ‘देहिनाम्’ पद से कहा था, उन्हीं को यहाँ ‘सर्वस्य’ पद का तात्पर्य है कि जो शास्त्रविधि को न जानते हों और देवता आदि का पूजन करते हों- उनकी ही नहीं, प्रत्युत जो शास्त्रविधि को जानते हों या न जानते हों, मानते हों या न मानते हों, अनुष्ठान करते हों या न करते हों, किसी जाति के, किसी वर्ण के, किसी आश्रम के, किसी संप्रदाय के, किसी देश के, कोई व्यक्ति कैसे ही क्यों न हों- उन सभी की स्वाभाविक श्रद्धा तीन प्रकार की होती है। ‘श्रद्दामयोऽयं पुरुषः’- यह मनुष्य श्रद्धा प्रधान है। अतः जैसी उसकी श्रद्धा होगी, वैसा ही उसका रूप होगा। उससे जो प्रवृत्ति होगी, वह श्रद्धा को लेकर, श्रद्धा के अनुसार ही होगा। ‘यो यच्छ्रद्धः स एव सः’- जो मनुष्य जैसी श्रद्धा वाला है, वैसी ही उसकी निष्ठा होगी और उसके अनुसार ही उसकी गति होगी। उसका प्रत्येक भाव और क्रिया अंतःकरण की श्रद्धा के अनुसार ही होगी। जब तक वह संसार से संबंध रखेगा, तब तक अंतःकरण के अनुरूप ही उसका स्वरूप होगा। |
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