श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
धार्मिक संस्थाओं में भी जो संचालक कहलाते हैं, वे प्रायः उन धार्मिक संस्थाओं के पैसों से अपने घर का काम चलायेंगे। अपने को नफा किस प्रकार हो, हमारी दुकान किस तरह चले, पैसे, कैसे मिलें- इस प्रकार अपने स्वार्थ को लेकर केवल दिखावटीपन से सारा काम करेंगे। प्रायः साधन-भजन करने वाले भी दूसरे को आता देखकर आसन लगाकर बैठ जाएंगे, भजन-ध्यान करने लग जाएंगे, माला घुमाने लग जाएंगे। परंतु कोई देखने वाला न हो तो बातचीत में लग जाएंगे, ताश-चौपड़ खेलेंगे अथवा सो जाएंगे। ऐसा जो साधन-भजन होता है, वह केवल इसलिए कि दूसरे मुझे अच्छा मानें, भक्त मानें और मेरी प्रशंसा करें, मेरा आदर-सम्मान करें, मुझे पैसे मिलें, लोगों में मेरा नाम हो जाए, आदि। इस प्रकार यह साधन-भजन भगवान का तो नाममात्र के लिए होता है, पर वास्तव में साधन-भजन होता है अपने नाम का, अपने शरीर का, पैसों का। इस प्रकार आसुरी प्रकृति वालों के विषय में कहाँ तक कहा जाए? ‘अविधिपूर्वकम्’- वे आसुर मनुष्य शास्त्रविधि को तो मानते ही नहीं, सदा शास्त्रनिषिद्ध काम करते हैं। वे यज्ञ, दान आदि तो करेंगे, पर उनको विधिपूर्वक नहीं करेंगे। दान करेंगे तो सुपात्र को न देकर कुपात्र को देंगे। कुपात्रों के साथ ही एकता रखेंगे। इस प्रकार उलटे-उलटे काम करेंगे। बुद्धि सर्वथा विपरीत होने के कारण उनको उलटी बात भी सुलटी ही दीखती है- ‘सर्वार्थान् विपरीतांश्च’।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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