श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
जब उनकी दृष्टि अपने शरीर तथा परिवार पर जाती है, तब वे उस विषय में मनोरथ करने लग जाते हैं कि अमुक-अमुक दवाएँ सेवन करने से शरीर ठीक रहेगा। अमुक-अमुक चीजें इकट्ठी कर ली जाएँ, तो हम सुख और आराम से रहेंगे। एयरकण्डीशन वाली गाड़ी मँगवा लें, जिससे बाहर की गरमी न लगे। उनके ऐसे वस्त्र मंगवा लें, जिससे सरदी न लगे। ऐसा बरसाती कोट या छाता मंगवा लें, जिससे वर्षा से शरीर गीला न हो। ऐसे ऐसे गहने कपड़े और श्रृंगार आदि की सामग्री मंगवा लें, जिससे हम खूब सुंदर दिखायी दें, आदि-आदि।
ऐसे मनोरथ करते-करते उनको यह याद नहीं रहता कि हम बूढ़े हो जाएंगे तो इस सामग्री का क्या करेंगे और मरते समय यह सामग्री हमारे क्या काम आएगी? अंत में इस संपत्ति का मालिक कौन होगा? बेटा तो कपूत है; अतः वह सब नष्ट कर देगा। मरते समय यह धन-संपत्ति खुद को दुःख देगी। इस सामग्री के लोभ के कारण ही मुझे बेटा-बेटी से डरना पड़ता है, और नौकरों से डरना पड़ता है कि कहीं ये लोग हड़ताल न कर दें।
प्रश्न- दैवी संपत्ति को धारण करके साधन करने वाले साधक के मन में भी कभी-कभी व्यापार आदि के कार्य को लेकर (इस श्लोक की तरह) ‘इतना काम हो गया, इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जाएगा; इतना पैसा आ गया है और इतना वहाँ पर टैक्स देना है’ आदि स्फुरणाएँ होती हैं। ऐसी ही स्फुरणाएँ जडता का उद्देश्य रखने वाले आसुरी-संपत्ति वालों के मन में भी होती हैं, तो इन दोनों की वृत्तियों में क्या अंतर हुआ?
उत्तर- दोनों की वृत्तियाँ एक सी दीखने पर भी उनमें बड़ा अंतर है। साधक का उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का होता है; अतः वह उन वृत्तियों में तल्लीन नहीं होता। परंतु आसुरी प्रकृति वालों का उद्देश्य धन इकट्ठा करने और भोग भोगने का रहता है; अतः वे उन वृत्तियों में ही तल्लीन होते हैं। तात्पर्य यह है कि दोनों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होने से दोनों में बड़ा भारी अंतर है।
|