श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘इदमदय मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्’- आसुरी प्रकृति वाले व्यक्ति लोभ के परायण होकर मनोरथ करते रहते हैं कि हमने अपने उद्योग से, बुद्धिमानी से, चतुराई से, होशियारी से, चालाकी से इतनी वस्तुएँ तो आज प्राप्त कर लीं, इतनी और प्राप्त कर लेंगे। इतनी वस्तुएँ तो हमारे पास हैं, इतनी और वहाँ से आ जाएंगी। इतना धन व्यापार से आ जाएगा। हमारा बड़ा लड़का इतना पढ़ा हुआ है; अतः इतना धन और वस्तुएँ तो उसके विवाह में आ ही जाएँगी इतना धन टैक्स की चोरी से बच जाएगा, इतना जमीन से आ जाएगा, इतना मकानों के किराए से आ जाएगा, इतना ब्याज का आ जाएगा, आदि-आदि। ‘इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्’- जैसे-जैसे उनका लोभ बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे उनके मनोरथ भी बढ़ते जाते हैं। जब उनका चिन्तन बढ़ जाता है, तब वे चलते-फिरते हुए काम-धंधा करते हुए, भोजन करते हुए, मल-मूत्र का त्याग करते हुए और यदि नित्यकर्म (पाठ-पूजा-जप आदि) करते हैं तो उसे करते हुए भी ‘धन कैसे बढ़े’ इसका चिन्तन करते रहते हैं। इतनी दुकानें, मिल, कारखाने तो हमने खोल दिए हैं, इतने और खुल जाएँ। इतनी गायें-भैंसें, भेड़-बकरियाँ आदि तो हैं ही, इतनी और हो जाएँ। इतनी जमीन तो हमारे पास है, पर यह बहुत अच्छा हो जाएगा। इस प्रकार धन आदि बढ़ाने के विषय में उनके मनोरथ होते हैं। |
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