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श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
- असौ मया हतः शत्रुर्हनिष्ये चापरानपि ।
- ईश्वरोऽहमहं भोगी सिद्धोऽहं बलवान्सुखी ।।14।।
- अर्थ- वह शत्रु तो हमारे द्वारा मारा गया और उन दूसरे शत्रुओं को भी हम मार डालेंगे। हम सर्वसमर्थ हैं। हमारे पास भोग-सामग्री बहुत है। हम सिद्ध हैं। हम बड़े बलवान और सुखी हैं।
व्याख्या- आसुरी-संपदा वाले व्यक्ति क्रोध के परायण होकर इस प्रकार के मनोरथ करते हैं- ‘असौ मया हतः शत्रुः’- वह हमारे विपरीत चलता था, हमारे साथ वैर रखता था, उसको तो हमने मार दिया है और ‘हनिष्ये चापरानपि’- दूसरे जो भी हमारे विपरीत चलते हैं, हमारे साथ वैर रखते हैं, हमारा अनिष्ट सोचते हैं, उनको भी हम मजा चखा देंगे, मार डालेंगे।
‘ईश्वरोऽहम्’- हम धन, बल, बुद्धि आदि में सब तरह से समर्थ हैं। हमारे पास क्या नहीं है? हमारी बराबरी कोई कर सकता है क्या? ‘अहं भोगी’- हम भोग भोगने वाले हैं। हमारे पास स्त्री, मकान, कार आदि कितनी भोग सामग्री है! ‘सिद्धोऽहम्’- हम सब तरह से सिद्ध हैं।
हमने तो पहले ही कह दिया था न? वैसा हो गया कि नहीं? हमारे को तो पहले से ही ऐसा दीखता है; ये जो लोग भजन, स्मरण, जप, ध्यान आदि करते हैं, ये सभी किसी के बहकावे में आए हुए हैं। अतः इनकी क्या दशा होगी, उसको हम जानते हैं। हमारे समान सिद्ध और कोई है संसार में? हमारे पास अणिमा, गरिमा आदि सभी सिद्धियाँ हैं। हम एक फूँक में सबको भस्म कर सकते हैं। ‘बलवान्’- हम बड़े बलवान् हैं।
अमुक आदमी ने हमारे से टक्कर लेनी चाही, तो उसका क्या नतीजा हुआ? आदि। परंतु जहाँ स्वयं हार जाते हैं, वह बात दूसरों को नहीं कहते, जिससे कि कोई हमें कमज़ोर न समझ ले। उन्हें अपने हारने की बात तो याद भी नहीं रहती, पर अभिमान की बात उन्हें याद रहती है। ‘सुखी’- हमारे पास कितना सुख है, आराम है। हमारे समान सुखी संसार में कौन है?
ऐसे व्यक्तियों के भीतर तो जलन होती रहती है, पर ऊपर से इस प्रकार की डींग हाँकते हैं।
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