श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
व्याख्या- ‘चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः’- आसुरी-संपदा वाले मनुष्यों में ऐसी चिन्ताएँ रहती हैं, जिनका कोई माप-तौल नहीं है। जब तक प्रलय अर्थात मौत नहीं आती, तब तक उनकी चिन्ताएँ मिटती नहीं। ऐसी प्रलय तक रहने वाली चिन्ताओं का फल भी प्रलय-ही-प्रलय अर्थात बार-बार मरना ही होता है। चिन्ता के दो विषय होते हैं- एक पारमार्थिक और दूसरा सांसारिक। मेरा कल्याण, मेरा उद्धार कैसे हो? परब्रह्म परमात्मा का निश्चय कैसे हो? (‘चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय’)? इस प्रकार जिनको पारमार्थिक चिन्ता होती है, वे श्रेष्ठ हैं। परंतु आसुरी-संपदा वालों को ऐसी चिन्ता नहीं होती। वे तो इससे विपरीत सांसारिक चिन्ताओं के आश्रित रहते है कि हम कैसे जीएंगे? अपना जीवन-निर्वाह कैसे करेंगे? हमारे बिना बड़े-बूढ़े किसके आश्रित जीयेंगे? हमारा मान, आदर, प्रतिष्ठा, इज्जत, प्रसिद्धि, नाम आदि कैसे बने रहेंगे? मरने के बाद हमारे बाल-बच्चों की क्या दशा होगी? मर जाएंगे तो धन-संपत्ति, जमीन-जायदाद का क्या होगा? धन के बिना हमारा काम कैसे चलेगा? धन के बिना मकान की मरम्मत कैसे होगी? आदि-आदि। मनुष्य व्यर्थ में ही चिन्ता करता है। निर्वाह तो होता रहेगा। निर्वाह की चीजें तो बाकी रहेंगी और उनके रहते हुए ही मरेंगे। अपने पास एक लंगोटी रखने वाले विरक्त से विरक्त की भी फटी लंगोटी और फूटी तूम्बी बाकी बचती है और मरता है पहले। ऐसे ही सभी व्यक्ति वस्तु आदि के रहते हुए ही मरते हैं। यह नियम नहीं है कि धन पास में होने से आदमी मरता न हो। धन पास में रहते-रहते ही मनुष्य मर जाता है और धन पड़ा रहता है, काम में नहीं आता। एक बहुत बड़ा धनी आदमी था। उसने तिजोरी की तरह लोहे का एक मजबूत मकान बना रखा था, जिसमें बहुत रत्न रखे हुए थे। उस लोहे का एक मजबूत मकान बना रखा था, जिसमें बहुत रत्न रखे हुए थे। |
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