श्रीमद्भगवद्गीता साधक-संजीवनी हिन्दी-टीका -स्वामी रामसुखदास
षोडश अध्याय
जो अपने पास एक कौड़ी का भी संग्रह नहीं करते, ऐसे विरक्त संतों को भी प्रारब्ध के अनुसार आवश्यकता से अधिक चीजें मिल जाती हैं। अतः जीवन-निर्वाह चीजों के अधीन नहीं है।[1] परंतु इस तत्त्व को आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य नहीं समझ सकते। वे तो यही समझते हैं कि हम चिंता करते हैं, कामना करते हैं, विचार करते हैं, उद्योग करते हैं, तभी चीजें मिलती हैं। यदि ऐसा न करें, तो भूखों मरना पड़े! ‘कामोपभोगपरमाः’- जो मनुष्य धनादि पदार्थों का उपभोग करने के कारण हैं, उनकी दो हरदम यही इच्छा रहती है कि सुख-सामग्री का खूब संग्रह कर लें और भोग भोग लें। उनको तो भोगों के लिए धन चाहिए; संसार में बड़ा बनने के लिए धन चाहिए, सुख-आराम, स्वाद-शौकीनी आदि के लिए धन चाहिए। तात्पर्य है कि उनके लिए भोगों से बढ़कर कुछ नहीं है। ‘एतावदिति निश्चिताः’- उनका यह निश्चय होता है कि सुख भोगना और संग्रह करना- इसके सिवाय और कुछ नहीं है।[2] इस संसार में जो कुछ है, यही है। अतः उनकी दृष्टि में परलोक एक ढकोसला है। उनकी मान्यता रहती है कि मरने के बाद कहीं आना-जाना नहीं होता। बस, यहाँ शरीर के रहते हुए जितना सुख भोग लें, वही ठीक है; क्योंकि मरने पर तो शरीर यहीं बिखर जाएगा।[3] शरीर स्थिर रहने वाला है ही नहीं, आदि-आदि भोगों के निश्चय के सामने वे पाप-पुण्य, पुनर्जन्म आदि को भी नहीं मानते। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (1) प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा शरीर। तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुवीर ।।
(2) मुरदे को हरि देत है, कपड़ी लकड़ी आग। जीवित नर चिन्ता करे, उनका बड़ा अभाग ।।
(3) श्वान नहीं धीणों नहीं, नहीं रुपैयो रोक। जीमण बैठे रामदास, आन मिलै सब थोक ।।
- ↑ ऐसे ही स्वर्ग को मानने वाले सकाम मनुष्य भी कहते हैं कि स्वर्ग से बढ़कर और कुछ नहीं है- ‘नान्यदस्तीति वादनिः’। (गीता 2:42) उनकी यही कामना रहती है कि मरने के बाद हम स्वर्ग में जाएंगे और वहाँ के दिव्य भोगों को भोगेंगे। स्वर्ग के भोगों के सामने यहाँ के भोग कुछ भी नहीं है- ऐसा मानते हैं।
- ↑ यावज्जीवेत् सुखं जीवेद् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।
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